(Article) बाहरी शासकों नें हमेशा ही तबाह किया है ! बुन्देलखण्ड को

बाहरी शासकों नें हमेशा ही तबाह किया है ! बुन्देलखण्ड को

अवधेश गौतम, बांदा
बुन्देलखण्ड में सत्ता की डोर जब जब भी बाहरी शासकों के हाथ ते रही उसे तबाही का ही मुंह देखना पड़ा ऐसे संकेत यहां के इतिहास के पन्नों से भी मिलते हैं। यही कारण है कि केन्द्रीय सत्ता से बगावत के स्वर यहां की फसलों के साथ उगते हैं। इतिहास में इस बात के भी मुकम्मल सबूत हैं कि केन्द्रीय सत्ता नें यहां से केवल लूटनें का ही काम किया है। प्रगति के नाम पर यहां विस्थापन के बाद मिलनें वाले मुआवजे के बराबर भी काम नहीं किया गया। यही कारण है कि आज बुन्देलखण्ड निर्जनवन बनने के मुहानें पर खड़ा नजर आ रहा है।

कथित महान अकबर के जमानें में पूरा देश दिल्ली सल्तनत के अधीन हो चुका था, लेकिन महारानी दूर्गावती के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड स्वाधीन था। अकबर नें जब भी बुन्देलखण्ड में आक्रमण किया, उसे मुंह की खानी पड़ी। अन्ततः हार कर अकबर नें बुन्देलखण्ड की आर्थिक नाकेबन्दी कर दी। चूंकि दैवी आपदाएं बुन्देलखण्ड को विरासत में ही मिली थीं, अतः कुछ ही समय में यहां खाद्यान की तवाही मच गयी। महारानी दुर्गावती नें अपनें गणराज्यों की सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि, “खाद्यान की इस समस्या से निपटनें के उनके पास दो रास्ते हैं, एक तो यह कि वे अकबर से हार मान कर उससे सन्धि करलें या फिर दो साल में वह अपनी व्यवस्था करलें।”

गणराज्यों नें महारानी को दूसरे रास्ते यानी अपनी व्यवस्था कर लेनें के लिए अनुमति प्रदान की। महारानी नें सीमा सुरक्षा की जिम्मेवारी अपनी गिरानी में गणराज्यों को सौंप दी और सेना लेकर खाद्यान आत्मनिर्भरता के काम में जुट गयी। उन्होनें उरई जो आज उत्तर प्रदेश के जिला जालौन की तथा खुरई, मध्य प्रदेश के सागर जिले की तहसील है और खेती समतल है। वहां महारानी ने हजारों हजार बीघे की बन्धियां डलवाईं। इन बन्धियों में बारिश का पानी भर गया, जिनके पागर दशहरे के दिन खोल दिए जाते थे और दीपावली तक उनमें गेहूं, चना, अलसी, और सरसों बो दिया जाता था। इनसे एक साल की पैदावार में बुन्देलखण्ड खाद्यान के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया।

जिन क्षेत्रों में बड़ी बन्धियां सम्भव नहीं थी वहां महारानी नें बहुत गहरे और बहुत बड़े तालाब तथा गहरे और चैड़े कुंवे खुदवाए। अपनी महारानी की सीख को हर बुन्देले ने सरमाथे पर लिया और हर खेत में बन्धी तथा हर गांव में दर्जनों कुएं व तालाब बन गए। यदि महारानी के प्रयास से बुन्देलखण्ड में आत्मनिर्भरता आई तो लोगों के प्रयास से सम्पन्नता। इस प्रकार सत्ता और शासित दोनों नें मिल कर यहां की प्रकृति को पुष्पित-पल्लिवत किया और उसके माध्यम से केवल आत्मनिर्भरता ही नहीं बल्कि सम्पन्नता भी अर्जित करली। महारानी दुर्गावती के ऐसे ही प्रयासों के परिणाम थे कि उन्होंनें अपने जीवन काल में अकबर जैसे शासक को अपने घोड़ की टाप के नीचे रखा। इतना ही नहीं महाराजा छत्रसाल भी दिल्ली सल्तनत को गीदड़ों की तरह मार मार कर खदेड़ते रहे।

कम्पनी सरकार नें बुन्देलखण्ड के पर्यावरण के विपरीत काम शुरू किया तो उसके के खिलाफ सबसे पहले सन 1857 में यहीं के किसानों और शिल्पकारों नें बगावत के स्वर बुलन्द किए थे। लेकिन पूरी दुनियां की ताकतें समेटे क्राउन सरकार से पहली बार बुन्देलखण्ड पराजित हो गया। उसी के बाद बुनदेलखण्ड में तवाही की नीव रख गयी। उस समय यहां सागौन, शीशम, और साखू के जंगलों का कटान बड़े पैमानें पर हुआ। लकड़ी की ढुलान के लिए यहां रेल लाइन बिछाई गयी। लेकिन इस क्षेत्र के साथ अग्रेजों नें भी इतनी मुरउवत बरती कि यहां की जलवायु के अनुसार यहां की जीवन पद्धति को बाधित नहीं किया। लेकिन यहां की बन्धियों, तालाबों और कुओं के समनान्तर नदियों पर बांध और नहरों की परम्परा जरूर विकसित करदी, और यहीं से शुरू हो गयी बुन्देलखण्ड की तबाही।