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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - खजुराहो की वास्तुकला (Architecture of Khajuraho)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

खजुराहो की वास्तुकला (Architecture of Khajuraho)

खजुराहो के मंदिर, चंदेल राजाओं के समय ९५०- १०५० ई. के बीच बनाये गए। वे निर्माण कला के सुरुचि- संपन्न ललित अभिव्यक्ति है। पत्थर का बना हुआ एक चबुतरा है। यह नींव की मंजिल है और काफी ऊँची है। इसपर गर्भगृह, अंतराल, मंडप तथा अर्धमंडप है। कुछ मंदिरों में मंडप के दोनों ओर महामंडप है। कुछ मंदिरों में मंडल के दोनों ओर महामंडप है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। वास्तुकला की मुख्य विशेषता शिखर है। इन शिखरों पर छोटे- छोटे शिखर संलग्न हैं। इन्हें "उरुश्रृंग' कहते हैं। यह छोटे आकार के मंदिर के ही प्रतिरुप हैं। इन उरुश्रृंगों ने मंदिर की बाह्यकृति को और भी सुंदर बना दिया है। शिखर के शीर्ष भाग पर अमृतघाट और आमलक है। वास्तुकला की दृष्टि से इस मंदिर की विशेषता यह है कि मंदिर के सभी अंग भली- भांति समन्वित हैं। गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप इत्यादि मंदिर के सभी अंश इमारत के अविच्छिन्न अंग दिखलाई देते हैं। शिखर और उरुश्रृंगों सहित यह मंदिर एक पर्वत की भांति प्रतीत होता है।

खजुराहो मंदिरों का न केवल तलच्छंद, अपितु ऊर्ध्वच्छंद भी विलक्षण है। मंदिर की ऊँचाई वृद्धि हेतु प्रत्येक मंदिर प्रायः १२ फीट ऊँची जगती पर निर्मित है, जिसपर पहुँचने के लिए एक या दो दिशा में सोपान पथ है। उर्ध्वच्छंद में समस्त मंदिर चार भागों में विभक्त है। जगती के ऊपर सर्वप्रथम मंदिर का अधिष्ठान भाग निर्मित है, जो प्रायः घटपल्लव नरपीठ, अश्वपीठ तथा राजपीठ में विभक्त है। यह सभी अलंकरण पंक्तिबद्ध होकर संपूर्ण मंदिर को एक माला के सदृश घेरे हैं। इस प्रकार धूप- छांव की भी सुंदर व्यवस्था हो गई है। अधिष्ठान के ऊपर का भाग गर्भगृह या परिक्रमा आदि मंदिर के आंतरिक भागों की बाहरी दीवारें हैं, जिनमें कक्षासन या गवाक्ष है। इनमें अत्यंत मनोहम तथा चित्ताकर्षक मूर्तियों की दो या तीन अलंकरण पट्टियाँ हैं। इनके अतिरिक्त अधिष्ठान वृहद एवं लघु रथिकाएँ निर्मित है, जिनमें देव मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। अधिष्ठान के उर्ध्व भाग से मंदिर का जंघा भाग, प्रारंभ होता है। निरंधार मंदिरों में महामण्डप के जंघा भाग में तथा संधार मंदिरों के महामण्डप तथा गर्भगृह के जंघा भाग क्रमशः दो एवं तीन कक्षासन अथवा गवाक्ष निर्मित है।

इन गवाक्षों के कारण जंघा भाग में प्रकाश पहुँचता है तथा मंदिर की क्रास आकृति का रुप अधिक प्रखर हो गया है। जंघा के ऊपर कण्ठी भाग की सीधी भित्ति शिखर का रुप धारण करने के लिए कोण का निर्माण करती है।

देवयातन का सर्वोच्च अंग इसका शिखर भाग है, जो स्तूत की हर्मिका सदृश देवता का निवास स्थल है। प्रा.म. के अनुसार शिखर के उच्चतम भाग अमलसार में देवता का वास होता है, जिसके दर्शन मात्र से ईष्ट के दर्शन का फल प्राप्त होता है। खजुराहो मंदिरों के विभिन्न अंगों पर पृथक- पृथक शिखर है, जो अब मण्डप से प्रारंभ होकर, पर्वतमाला के श्रृंगों के समान उत्तरोत्तर ऊंचे उठते जाते है तथा इनकी परिणति गर्भगृह के उत्तुंग शिखर में होती है। यही कारण है कि शिखर की उपमा मेरु अथवा कैलाश से दी जाती है। गर्भगृह तथा महामण्डप के मध्य अंतराल भाग के ऊपर शुकनासिका सदृश शिखर से उभरा भाग निर्मित है, जो इसी संज्ञा से अभिहित किया जाता है। गर्भगृह के मूल शिखर के उच्चतम भाग पर वृहदाकार आमलक शिला, चंद्रिका, लघु आमलक, कलश बीजपुरक तथा सर्वोच्च स्थान पर संप्रदायनुसार त्रिशुल अथवा चक्र निर्मित है। प्रधान शिखर के साथ, इन समस्त अंग शिखरों का पूँजीभूत समूह एक विलक्षण स्वरुप धारण कर लेता है, जो मध्य प्रदेश में नागर शैलीय वैशिष्टय बन जाती है।

मंदिर के अंतर्भाग की सादी और प्रभावकारी आयोजना में द्वार मार्गों, स्तंभों, कड़ियों और वितानों को प्रचूर सज्जा और मूर्ति संपदा विस्मय की है। मंदिरों के वितान की कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति अपूर्व कुशलता से ही गई है। छत के तल भाग में दिलहेदार वितान के जटिल ज्यामितीय और फुलकारी अभिप्रयायों के निर्माण से प्रवीन शिल्पियों का असाधारण हस्तकौशल ज्ञात होता है।

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - खजुराहो का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (Social and economic history of Khajuraho)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

खजुराहो का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (Social and economic history of Khajuraho)

खजुराहो की शिल्प संपदा के निर्माण में कलाकारों ने अपनी गहन अनुभूतियों और व्यापक अनुभवों का इस प्रकार प्रयोग किया है कि उनसे तत्कालीन सामाजिक तथा आर्थिक इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

जाति और वर्ग

प्राचीन भारतीय समाज चार वर्णों में विभाजित था। यह विभाजन पहले कर्म पर आधारित था, परंतु कालांतर में जाति प्रथा का इतनी कट्टरता के साथ होने लगा कि यह व्यवस्था वंशानुगत हो गया। इस व्यवस्था के प्रभाव से खजुराहो का समाज अछूता नहीं रहा तथा यहाँ का समाज भी चार वर्णों में बँट गया था। खजुराहों काल में, ब्रह्मणों को समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति प्राप्त थी। वे उच्च पदों पर आसीन होते थे। कुछ ब्राह्मण परिवार आनुवांशिकता से महामात्य, पुरोहित, सांधिविविग्रहिक और राज कवियों के पदों पर नियुक्त रहे।

क्षत्रिय जाति योद्धा थी। इनका मुख्य कार्य शत्रुओं से देश की रक्षा करना था।

अन्य वर्ग कायस्थों की थी। ये राजकीय लिपिक बौद्धिक वर्ग के लोग थे। इनको समाज में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त थी। कायस्थों को लेखा- जोखा से संबंधित कार्य दिए जाते थे।

वैश्य लोग व्यापारिक वर्ग के थे। उनका प्रधान कार्य व्यापार तथा उद्योग धंधों की उन्नति करना था। इनके अतिरिक्त निम्न वर्ग था, जिसका चंदेल अभिलेखों में वैश्य और शुद्र शब्द का अभाव है। खजुराहो काल में निम्न वर्ग के लोग अपनी जाति से अधिक, अपने व्यवसायों से जाने जाते थे। इनके नाम इस तरह थे -- हरकरें, गोपाल, आजपाल, मालाकार आदि।

आश्रम व्यवस्था

आश्रम व्यवस्था भारतीय संस्कृति के सामाजिक पक्ष का मूलाधार होने के कारण खजुराहो की विभिन्न प्रतिमाओं में भी दिखाई देता है। यह व्यवस्था खजुराहो में चार चरणों में थी -- ब्रह्मचार्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम। ब्रह्मचर्याश्रम में द्विज वेदों और विविध विद्याओं का अध्ययन करता था। गृहस्थाश्रम में सक्रिय नागरिक के रुप में अपनी गृहस्थी बसाता था। संयमपूर्ण सांसारिक सुख- दुख का भोग करता था। वानप्रस्थाश्रम में त्यागी का जीवन बिताता था। वानप्रगस्थाश्रम का द्विज त्यागी का जीवन व्यतीत करते हुए सन्यासाश्रम में प्रवेश करता था और योगाभ्यास करता हुआ अपना शरीर त्याग देता था।

मंदिरों में ब्रह्मचर्याश्रम का चित्रण

खजुराहो की कुछ शिल्पाकृतियों में तत्कालीन विद्यालयों के दृश्यों को अंकित किया गया है। एक प्रतिमा में विद्यार्थियों से घिरे आचार्य को बाँए हाथ में काष्ठ- फलक लिये हुए दिखाया गया है। वह इस काष्ठफलक पर कुछ लिखते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रतिमा के पास ही एक अन्य दृश्य में प्रौढ़ व्यक्तियों का एक विद्यालय अंकित किया गया है। इन प्रौढ़ व्यक्तियों के बीच में एक आचार्य विराजमान हैं, जिसके दोनों पार्श्वों� में एक- एक विद्यार्थी आसीन है। विद्यार्थी अपने हाथ में कोष्ठफलक पकड़े, दाएँ हाथ से उस पर कुछ लिखते दिखाई देते हैं। कंदरिया महादेव मंदिर के पिछली भित्ति की रथिका में एक प्रौढ़ व्यक्ति को अध्ययन करते हुए दिखाया गया है। छात्र अपने अलंकृत वेशभूषा तथा आभूषण से किसी संपन्न परिवार का प्रतीत होता है।

गृहस्थाश्रम

ये आश्रम घरेलू जीवन के महत्वपूर्ण पहलूओं पर प्रकाश डालते हैं। खजुराहो मंदिर के अनेक शिल्पों में आराम से बैठे हुए दंपत्ति को वार्तालाप करते हुए अंकित किया गया है। संभवतः ये दंपत्ति परिवारिक समस्याओं का हल ढ़ूंढने का प्रयास कर रहे दिखाई देते हैं। लक्ष्मण मंदिर में एक युगल अंकित किया गया है। पति क्रुद्ध मुद्रा में हैं, जबकि पत्नी उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे  प्रसन्न करने का प्रयास करती दिखाई गई हैं। चित्रगुप्त मंदिर में पत्नी को पति द्वारा फुलों का प्रेमोपहार देते हुए अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त कई दृश्यों में शोकपूर्ण अवसरों पर पति- पत्नी एक दूसरे का दुख बाँटते हुए दिखाए गए हैं। कई पत्नियों को धीरज बँधाते हुए दिखाया गया है। कहीं- कहीं पतियों को आलिंगन करते हुए दर्शाया गया है। एक स्थान पर पति द्वारा हाथ जोड़कर माफी माँगते हुए दिखाया गया है।

कलाकृतियों में पत्नी को ताड़ना देते हुए पति को चित्रित किया गया है। लक्ष्मण मंदिर की प्रतिमा में ऐसे चित्रण दिखाई देते हैं। जब पति अपनी पत्नी को पीट रहा है, तो समीप ही एक दर्शक दुखी मन से पति- पत्नी के झगड़े को देखता हुआ चित्रित किया गया है। अनेक चित्रण में पतियों के कठोर एवं पाशविक आचरण का अंकन देखने को मिलता है, तथापि पत्नियों द्वारा पतियों के प्रति कठोर व्यवहार का एक भी दृश्य अंकित नहीं हैं। इससे प्रकट होता है कि खजुराहो काल में स्रियों की स्वतंत्रता सीमित थी एवं वह पति के संरक्षण की मोहताज थी।

खजुराहो के कुछ शिल्पांकनों से पुरुषों पर स्रियों के प्रभाव का भी चित्रण मिलता है। देवी जगदंबी के एक दृश्य में एक स्री- पुरुष के हाथ पर अपना हाथ रखकर उसे जल्दबाजी में कोई निर्णय लेने से रोकती दिखाई देती है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में एक स्री युद्धक्षेत्र में जाते हुए व्यक्ति को रोकती दिखाई गई है।

समाज में स्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त होने के बावजूद दुष्ट और चरित्रहीन व्यक्तियों से उनकी सुरक्षा सदैव पतियों को करनी पड़ती थी। गृहस्थाश्रम में पतियों की देखभाल के साथ- साथ पत्नियों को सुचारु रुप से गृहस्थी चलाना और बच्चों को लालन- पालन भी करनी पड़ता था।

वानप्रस्थाश्रम

इसमें व्यक्ति छाजन की छाया के नीचे आश्रम नहीं लेता है और न हीं कोई परिधान धारण करता है। वह परिधान के लिए वह वृक्ष के छालों का प्रयोग करता है, वह खाने में कंद, मूल तथा फल खाता है।

सन्यासाश्रम

खजुराहो के मंदिरों में सन्यासियों का चित्रण बहुलता से अंकित किया गया है। इस प्रकार की प्रतिमाओं में तपस्वियों को उपदेश देते हुए दार्शनिक गुत्थियाँ सुलझाते हुए भाग्वद चिंतन करते हुए दिखाया गया है। कंदरिया महादेव और देवी जगदेबी मंदिरों में बैठे हुए तपस्वियों का चित्रण मिलता है और उनके सामने बैठे शिष्य समुदाय उनकी अमृतवाणी का पान करते हुए अंकित किया है।

 

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - खजुराहो - एक परिचय (Khajuraho- An introduction)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

खजुराहो - एक परिचय (Khajuraho- An introduction)

प्राचीन शिलालेखों से प्राप्त सुत्रों के आधार से यह ज्ञात होता है कि सन् ८०० के लगभग चंदेल राज्य की स्थापना हुई और यह राज्य काल लगभग सन् १५२० तक रहा। चंदेल वंश की स्थापना नन्नुक ने डाली और आगे चलकर इस वंश में एक- से- एक प्रतापी व शक्तिशाली राजा हुए। उनमें जयशक्ति, हर्ष, यशोवर्मन, धंग, गंइ तथा विद्याधर के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके समय में खजुराहो की विशेष उन्नति हुई।

हर्षवर्धन चंदेल वंश का सबसे प्रतापी राजा था। वह इस वंश का छठा राजा था। इसने चंदेल राज्य को कन्नौज के प्रतिहारों की पराधीनता से छुड़ाकर स्वतंत्र घोषित किया। इनके और इनके पुत्र यशोवर्मन के काल (१० वीं सदी के शुरुआती दशक में) परिस्थितियाँ अनुकूल थी। समकालीन प्रतिहार राजा के दक्कन के राष्ट्रकूट राजा इंद्र।।। (सन् ९१७) के द्वारा पराजय के कारण चंदेलों की उदय एक शक्तिशाली राज्य के रुप में हो चुकी थी। यशोवर्मन (लक्ष्मणवर्मन) की महत्वाकांक्षी विजय कृत्यों ने उनकी शक्ति में दृढ़ता प्रदान की। यशोवर्मन ने ही कालं की पहाड़ियों पर विजय प्राप्त की तथा सुप्रसिद्ध वैष्णव मंदिर का निर्माण करवाया।

यशोवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र धंगा (सन् ९५०- १००२) बना। समकालीन अभिलेखों के अनुसार उसने कई लड़ाईयाँ लड़ी तथा कन्नौल के राज्य को परास्त कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। यह वही सुप्रख्यात धंग था, जिसने गजनी के सुल्तान सुबुक्तगीन का मुकाबला करने को पंजाब के राजा जयपाल को सहायता दी थी। इसने गुर्जर- प्रतिहारों से अपने राज्य को पूर्णरुप से स्वतंत्र कर लिया । यह सौ वर्ष से भी अधिक जीवित रहा। विश्वनाथ मंदिर तथा कई अन्य मंदिरों का निर्माण उसी के काल में हुआ।

धंगा का पोता विद्याधर अन्य महत्वपूर्ण राजा था। इब्न- ए- अथर ने इसका उल्लेख ""बिंदा'' के रुप में किया है तथा इसे अपने समय के सबसे शक्तिशाली भारतीय शासक बताया है। सन् १०२२ ई. में गजनी के शासक महमूद गजनबी ने कालिं के किले पर कब्जा कर लिया, जो सामरिक दृष्टि से पूरे हिंदुस्तान के लिए महत्वपूर्ण किला था। उसके बाद से ही चंदेलों की शक्ति का ह्रास शुरु हो गया। उनकी शक्ति महोबा, आजमगढ़ तथा कालिं के किले तक ही सीमित रह गई।

चंदेलों के बाद का इतिहास खजुराहो से प्रत्यक्ष रुप से नहीं जुड़ा रहा।

खजुराहो ये चंदेलों के ख्वाबों का इक जहाँ,
खामोशियां सुनाती हैं इक दासतां यहाँ।
हद्दे निगाह तक ये मनादिर के सिलसिले,
भगवान भी मिले यहाँ, इंसान भी मिले।
थे कितने धर्म दहर में जारी नहीं रहे,
मंदिर नहीं रहे वो पुजारी नहीं रहे।

उन मंदिरों में मौत ने भी, सर झुका दिया, 
जिनकी किसी के खूने जिगर से सजा दिया।
कुछ दिल के बीज बोए थे फनकार ने यहाँ,
भर भर के लोग जाते हैं नजरों की झोलियाँ।
छूलें अगर तो नक्श- गरी बोलने लगे,
पत्थर तराश दे तो सदी बोलने लगे।

दामन को अपने हुस्न की दौलत से भर लिया,
सोने की तरह वक्त ने महफूज कर लिया।
इन मंदिरों में आ के कभी जब ठहर गए,
आंखों में देवताओं के साए उतर गए।
पूजा के फूल और न माला लिये हुए,
निकले तो एक हुस्न की दुनिया लिये हुए।

जब भी शरारे संग का इक गीत छिड़ गया, 
पत्थर की भी रगों में लहू दौड़ने लगा।
अपने हुनर से भोग को वो हुस्न दे दिया,
इन मूरतों ने योग की सरहद कोछ लिया।
मिलते हैं यां बदन से बदन इस अदा के साथ,
जैसे हो आत्मा कोई परमात्मा के साथ।

पत्थर में फूल कितने ही धर्मों के खिल गए,
बस एक ही महक रही इस तरह मिल गए।

दुनिया की उनको चाह ने शोहरत की चाह थी,
ताकत की चाह थी न हुकूमत की चाह थी।
दौलत की चाह थी न इमारत की चाह थी,
कुछ चाह थी तो सिर्फ सदाकत की चाह थी।
बस फन के हो के रह गये, सब कुछ लुटा दिया,
मेहनत से कोयले को भी हीरा बना दिया।

जिस वक्त चल रही थी लड़ाई की आंधियाँ,
अपने लहू में डूब रही थीं जवानियां।
सीनों को छेद जाती थीं बेरहम बर्छियां,
टापों की गर्द से था गगन भी धुआँ धुआँ।
इस हाल में भी हाथ की छेनी नहीं रुकी,
भूचाल में भी हाथ की छेनी नहीं रुकी।

जिस वक्त नाचती थी यहाँ देवदासियां,
वो लोच भी कि जैसे लचकती हों डालियां।
पूजा के साथ साजे तरब की भी गर्मियां,
सुख की हर एक सिम्त लहकती थी खेतियां।
जीवन को भोग, भोग को मजहब बना गए 
जीने का हमको जैसे सलीका सिखा गए।

पत्थर में दिल की इस तरह धड़कन तराश दी,
अंगराई ले कर जाग उठी जैसे शायरी।

पत्थर में छुप गई हो कहीं जैसे उर्वशी,
बेकल हैं किस तलाश में सदियों से आदमी।
ये वादिये खयाल ये रुहों की तिशनगी,
दिल का सुकून ढूंढ़ती फिरती है जिंदगी।

सदियाँ गु गई हैं कि पत्थर तराश कर,
इंसान जैसे रुप कोई यूं ढ़ूंढता रहा।
""ख्वाबों के जैसे हाथ में आइना आ गया,
आइना कैसे कैसे हँसी ख्वाब पा गया।

कवि श्री शहाब अशरफ ने इस प्रकार खजुराहो को बड़ी सुक्ष्मता से परखा है।

मध्यप्रदेश के छत्तरपुर जिले स्थित, खजुराहो मध्यकालीन मध्य भारतीय चंदेलों की राजधानी थी। यह क्षेत्र छत्तरपुर राज्य के नाम से भी जाना जाता था। खजुराहो के नामांकरण के संबंध में अनेक मत प्रचलित हैं। कनिन्घम एक शिलालेख से पढ़कर मूल नाम खर्जुर वाटिका या खजुवाटिका और फिर खजुराहा या खजुपुरा मानते हैं। अलबरुनी ( सन् १०३५ ) ने खजुराहा का उल्लेख किया है। ६४१ ई. में चीनी यात्री ह्मवेनसांग ने खजुराहो का उल्लेख किया है। वह इसे जाहुति राज्य (जुझौती या बुंदेलखण्ड ) की राजधानी कहता है। यह ज्यादा प्रचलित है कि खजुराहो की नगर के द्वार पर दो स्वर्ण वर्ण के खजुर के वृक्ष थे, जो द्वार को अलंकृत करते थे। उन्हीं खजूर के पेड़ों के कारण इसका नाम खजुराहो पड़ा। राजधानी होने के कारण चंदेलों के समय इसका विकास चरर्मोत्कर्ष पर था। बाद में विभिन्न कारणों से इसका पतन होने लगा। वर्तमान में यह एक जाने- माने पर्यटक स्थल के रुप में जाना जाता है।

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - अन्य विषय (Other Subject)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

अन्य विषय (Other Subject)

ज्योतिष

विवेच्य रासो काव्यों में कतिपय स्थानों पर धार्मिक पूजा अनुष्ठान के अतिरिक्त ज्योतिष विचार तथा शकुन विचार भी देखने को मिलता है। रासो ग्रन्थों के आधार पर उपलब्ध विवरण निम्नानुसार दिया जा रहा है।

रासो काव्यों की प्राचीन परम्परा में चन्द वरदाई के पृथ्वीराज रासो में कई स्थलों पर ज्योतिष सम्बन्धी युक्तिसंगत वर्णन किये गये हैं, परन्तु परिमाल रासो के उपलबध अंश में इस प्रकार के वर्णन अप्राप्य ही है। ज्योतिष वर्णन की जो परम्परा चन्द ने पृथ्वीराज रासो से प्रारम्भ की वह न्यूनाधिक रुप में आधुनिक बुन्देली रा#ो #ं#्रथो तक चली आई। "रेवा तट समया' के एक उदाहरण में ज्योतिष वर्णन निम्न प्रकार किया गया है-

-"वर मंगल पंचमी दिन सु दीनों प्रिथि राजं,
राहकेतु जप दान दुष्ट टारै सुभ काजं।
अष्ट चक्र जोगिनी भोग भरनी सुधिरारी, गुरु पंचमि रावि पंचम अष्ट मंगल नृप भारी।
कै इन्द्र वुद्धि भारथ्थ भलकर त्रिशूल चक्रावलिय,
सुभ घरिय राज वरलीन वर चढ् उदै कूरह वलिय।।''

(श्रेष्ठ पंचमी मंगलवार को पृथ्वीराज ने युद्धारम्भ के लिए चुना। राहु और केतु उस दिन पृथ्वीराज के लिए अनुकूल हुए, क्योंकि दुष्टग्रह के हटने पर शुभ की सम्भावना होती है। अष्ट चक्र पर योगिनी स्थिर रहने से तलवार के लए शुभ के रुप मे थी। गुरु (बृहस्पति) और रवि पांचवे स्थान पर, इस प्रकार बड़े भारी अष्टम स्थान में मंगल ग्रह राजा को थे। केन्द्रीय स्थान पर बुध था जो हाथ में त्रिशुल चिऋ और मणिबन्ध में चक्र वाले के लिए शुभ था। ऐसी शुभ घड़ी में, क्रूर और बलवान ग्रह (सूर्य या मंगल) के उदय होने पर महाराज ने आक्रमण किया।)

""सो रचि उद्ध अबद्ध, अथ, उग्गिमहंबधि मंद;
वर निषेद नृप वन्दयौ, को न भाइ कवि चन्द।।''

(जब महान अबधि वाला मंद (शनि) ग्रह उदय हुआ तो पृथ्वीराज ने अपने हाथ नीचे से ऊपर उठाए (प्रणाम किया) और राजा ने अत्यन्त निषिद्ध 

(गृह) शनि की वन्दना की। च्नद कवि कहते हैं कि ऐसा किसे न भाएगा?

जोगीदास के दलपतिराव रायसा में ज्योतिष सम्बन्धी वर्णन नहीं किए गए हें। इसौ प्रकार "करहिया कौ राइसौ' एवं शत्रुजीत रायसामें भी इस प्रकार के वर्णन नहीं पाए जाते हैं।

'पारीछत रायसा' में श्रीधर ने ज्योतिष शास्र के आधार पर शकुन वर्णन निम्न प्रकार किया है। सेना प्रयाण तथा युद्ध के समय सरदारों के शुभ् शकुनों का इस प्रकार वर्णन किया है-

""तब दिमान सिकदार वरम मन्दिर पग धारे।
नकुल दरस मग भयौ रजक धोइ वस्र निहारे।""

तथा 
""श्री दिमान सिकदार देव ब्रह्मा जब परसे।
फरक दछ्छ भुज नैन मोद मन में अति सरसै।।
मन्दिर बाहिर आइ तहाँ दुजवर विवि दिष्पव।
कर पुस्तक गर माल तिलक मुनिवर सम पिष्ष्पव।।
तिन दई असीम प्रसन्न हुव सुफल होइ कारज्जा सब।
कीनि जु दण्डवत जोरकर मंगवाये हयराज तव।।""

उपर्युक्त छन्दों में नेवला का दर्शन, वस्र धोकर लाता हुआ धोबी, दाहिनी भुजा और नेत्र का फड़कना, मन्दिर के बाहर तिलक लगाये, पुस्तक लिए, माला धारण किए दो ब्राह्मणों का आना आदि शकुनों का वर्णन किया गया हे। श्रीधर ने एकस्थान पर लिखा है कि जो शकुन राम को लंका जाते समय और पृथ्वीराज को बृज जाते हुए घटित हुए थे वही दिमान सिकदार को भी हुए-

""राम लंक प्रथीराज कौं भए सगुन बृज जात।
श्री दिमान सिकदार कौं तेई सगुन दिषात।।''

एक उदाहरण देखने योगय हे-

"६सिरी चौंर गज ढाल पै, कंचन फूल अनूप।
रवि ससि सनगुर सौं भजै उपमा लगत अनूप।।''

अर्थात् छत्र, वंवर और हाथी की ढाल पर बने सोने के सुन्दर फूल से ऐसा सौंदर्य उपस्थित होता है जैसा कि रवि, शशि, शनि और गुरु (ब्रहस्पति) के संया#ेग से महाराज्य योग बनने पर होता है।

बाघाअ रासौ में ज्योतिष वर्णन नहीं पाया जाता है। कल्याण सिंह कुड़रा कृत "झाँसी कौ राइसौ' में झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई और टीकमगढ़ के दीवान नत्थे, खाँ तथा लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के साथ हुए युद्धों में ज्योतिष वर्णन अति न्यून रुप में केवल एकछन्द में देखा जाता है-

""चंद रवि राऊ केत आइ कें दबाई देत,
जानि कै निकेत ताइ पार देत बाहिरौ।
आगिम अकास अग्नि पृथ्वी पौन पानी में,
वेदन विदित जस जाकौ है जाहिरौ।।""

ज्योतिष, पूजा पाठ, ब्राह्मण कृत्यों आदि की झ्लक "मदनेश' कृत लक्ष्मीबाई रासों में कई स्थानों पर मिलती है। शकुन अपशकुन का वर्णन परम्परागत शैली में किया गया है। इस वर्णन पर रामचरित मानस की पूरी छाप है। जैसा कि कवि परिचय में परिचय दिया जा चुका है कि श्री मदनेश जी को ज्योतिष ज्ञान पूर्वजों से विरासत में मिला था एवं ज्योतिष की शिक्षा भी उन्होंने प्राप्त की थी, इस दृष्टि से कवि की रचनाओं पर ज्योति सम्बन्धी प्रभाव होना स्वाभाविक ही था। जहाँ लाभ की सम्भावना हुई वहाँ कवि ने शुभ शकुनों का वर्णन किया है एवं हानि के समय अपशकुनों का दर्शन कराया है।

नत्थे खाँ की सेना के ओरछा से झाँसी प्रस्थान के समय कवि ने अनेक अपशकुनों का वर्णन किया है सामने छींक होना, शृंगार का रासता काटकर निकल जाना आदि। इसके पश्चात् मार्ग में सागर को लूटकर जब पुनः नत्थे खाँ की सेना झाँसी की ओर अभिमुख होती है तो कवि ने फिर अपशकुनों की झड़ी लगा दी है। सामने छींक होना, शृंगाल का रास्ता काटना, हिरणी का बांयी ओर जाना, कौओं का चारों ओर शोर कना, कुत्ते का कान फड़फड़ाना, बिना स्नान किए हुए ब्राह्मण का मिलना, तरुणी विधवा का मिलना, साँप का रास्ता काटना, रोती हुई बुढिया, गाड़ी पर लदा हुआ रोगी, गिद्ध का उड़कर भुजा पर बैइना, खाली घड़े , दो लड़ते हुए बिलाव,पेड़ पर दो उल्लुओं का क्रीड़ा करना, गधे का आकर बोलना, हवा का भयंकर रुप से चलना, काना, जलती हुई लकड़ी, बेर फल खाता हुआ भिखारी,नंगी लड़की पुरुषों का बामांग फड़काना, ईंधन से भरी पड़ा गाड़ी, ध्वजा का वायु से फट जाना आदि अनेक अपशुनो की भीड़ लगा दी है।

इसके विरीत कवि ने अपनी काव्य नायिका रानी लक्ष्मीबाई के पक्ष के लिए शुभ शकुनों का वर्णन किया है जैसे रानी की बाम भुजा फड़कना, नीलकण्ड का दर्शन होना, पानी भर कर लाती हुई सुन्दर स्रियाँ, ब्राह्मणों का वेद पाठ, चील कागुर्ज पर बैठना, कन्याओं का खेलना, सुन्दर फलों को बेचने का दृश्य, धूपदीप नैवेद्य, गाय का बछड़ को दूध पिलाना, मंगल गान, सिर पर दूध का घड़ा लेकर आता हुआ पुरुष, शंख, झालक दुंदुभी का शब्द होना, मछली लेकर ढीमर का आना, धोबी का सिर पर वस्र रखे आना, रनानी की बायीं आँख फड़कना, तलवार की मूंठ से म्यान का न्धन अलग होना आदि।

कवि के द्वारा उपर्युक्त शुभ अशुभ शकुनो को प्रसंगानुकूल दुहराया भी गया। पर कहीं-कहीं ये निरे पिष्ट पेषण मात्र लगते हैं। शुभ अशुभ शकुनों की भरमार से कथानक की सरसता एवं प्रवाह में बाधा उत्पन्न हुई है। एक साथ ही कवि सभी प्रकार के शुभ-अशुभ शकुनों का दर्शन कराने का दर्शन कराने बैठ गया है, जिससे वर्णन में कृत्रिमता भी आ गई है।

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - प्रबन्ध और मुक्तक काव्य की दृष्टि से रासो काव्यों की समीक्षा (Review of Raso Kaviyana in terms of arrangement and liberating poetry)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

प्रबन्ध और मुक्तक काव्य की दृष्टि से रासो काव्यों की समीक्षा (Review of Raso Kaviyana in terms of arrangement and liberating poetry)

श्रव्यकाव्य के अन्तर्गत पद्य को प्रबन्ध और मुक्तक दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रबन्ध काव्य को महाकाव्य और खण्ड काव्य दो भागों में बाँटा गया है तथा मुक्तक काव्य के भी पाठ्य और प्रगीत दो भाग किये गये। "प्रबंध में पूर्वां पर का तारतम्य होता है। मुक्तक में इस तारतम्य का अभाव होता है।' प्रबंध में छंद कथानक के साथएक सूत्रता स्थापित करते चलते हैं, तथा छनद अपने स्थान से हटा देने पर कथावस्तु का क्रम टूट जाता है परन्तु मुक्तक काव्य में प्रत्येक छन्द अपने आप में स्वतन्त्र एवं पूर्ण अर्थ व्यक्त करता है। छन्द एक दूसरे के साथ जुड़कर किसी कथानक की रचना नहीं करते। ""मुक्तक छंद पारस्परिक बन्धन से मुक्त होते हैं, वे स्वतः पूर्ण होते हैं।''

महाकाव्य का स्वरुप

महाकाव्य का क्षेत्र विस्तृत होता है। महाकाव्य में जीवन की समग्र रुप से अभिव्यक्ति की जाती है। व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन के साथ-साथ उसमें जातीय जीवन की भी समग्र रुप में अभिव्यक्ति होती है। बाबू गुलाबराय के अनुसार महाकाव्य के शास्रीय लक्षण निम्न प्रकार हैं-

यह सर्गों में बँधा हुआ होता है।

इसमें एक नायक रहता है जो देवता या उत्तम वंश का धीरोदात्त गुणों से समन्वित पुरुष होता है। उसमें एक वंश के बहुत से राजा भी हो सकते हैं जैसे कि रघुवंश में।

शृंगार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस अंगी रुप से रहता है, नाटक की सब संधियाँ होती हैं।

इसका वृतान्त इतिहास प्रसिद्ध होता है या सज्जनाश्रित।

इसमें मंगलाचरण और वस्तु निर्देश होता है।

कहीं-कहीं दुष्टों की निन्दा और सज्जनों का गुण कीर्तन रहता है जैसे-कि रामचरित मानस में।

एक सर्ग में एक ही छन्द रहता है और अन्त में बदल जाता है। यह नियम शिथिल भी हो सकता है- जैसे कि राम चन्द्रिका में प्रवाह के लिए छद की एकता वांछनीय है। सर्ग के अंत में अगले सर्ग की सूचना रहती है। कम से कम आठ सर्ग होने आवश्यक हैं।

इसमें संध्या, सूयर्, चन्द्रमा, रात्रि प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातःकाल, मघ्याह्म, आखेट, पर्वत, त्र्तु, वन, समुद्र, संग्राम, यात्रा, अभ्युदय आदि विषयों का वर्णन रहता है।''

खण्ड काव्य का स्वरुप

जीवन की किसी घटना विशेष को लेकर लिखा गया काव्य खण्ड काव्य है। "खण्ड काव्य' शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसमें मानव जीवन की किसी एक ही घटना की प्रधानता रहती है। जिसमें चरित नायक का जीवन सम्पूर्ण रुप में कवि को प्रभावित नहीं करता। कवि चरित नायक के जीवन की किसी सर्वोत्कृष्ट घटना से प्रभावित होकर जीवन के उस खण्ड विशेष का अपने काव्य में पूर्णतया उद्घाटन करता है।

प्रबन्धात्मकता महाकाव्य एवं खण्ड काव्य दोनों में ही रहती है परंतु खण्ड काव्य के कथासूत्र में जीवन की अनेकरुपता नहीं होती। इसलिए इसका कथानक कहानी की भाँति शीघ्रतापूर्वक अन्त की ओर जाता है। महाकाव्य प्रमुख कथा केसाथ अन्य अनेक प्रासंगिक कथायें भी जुड़ी रहती हैं इसलिए इसका कथानक उपन्यास की भाँति धीरे-धीरे फलागम की ओर अग्रसर होता है। खण्डाकाव्य में केवल एक प्रमुख कथा रहती है, प्रासंगिक कथाओं को इसमें स्थान नहीं मिलने पाता है।

ऊपर महाकाव्य और खण्डकाव्य के स्वरुप का विवेचन किया गया। इसके आधार पर जब हम विवेच्य रासो काव्यों को परखते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ये सभी रासो काव्य खण्ड काव्य हैं। सभी रासो ग्रन्थों की कथावस्तु की समीक्षा खण्डकाव्य के आधार पर आगे की जा रही है।

६दलपति राव रायसा' में दतिया नरेश दलपतिराव के किशारोवस्था से लेकर मृत्यु तक के जीवन काल का वर्णन है। दलपतिराव ने मुगलों के अधीन रहकर मुगल शासकों का पक्ष लेकर युद्ध किए हैं इसलिए दपलतिराव रायसा का कथानक दो कथा सूत्रों के साथ जुड़ा हुआ है। एक प्रमुख कथा काव्य नाकय "दलपति राव' के जीवन से सम्बन्धित है। दूसरी कथा मुगल शासकों के घ्ज्ञराने से सम्बन्धित है। कवि का प्रमुख उद्देश्य महाराज दलपति राव की वरी उपलब्धियों का वण्रन करना रहा है। "दलपति राव रायसा' में बीजापुर, गोलकुण्डा, अदौनी, जिन्जी तथा जाजऊ आदि स्थानों पर हुए युद्धों का वर्णन किया गया है। अलग-अलग घटनायें किसी निश्चित कथनक का निर्माण भले ही न करती हों, परनतु इससे कवि के उद्देश्य की पूर्ति अवश्य हुई है। कवि का एकमात्र उद्देश्य दलपतिराव के जीवन काल की सभी प्रमुख युद्ध की घटनाओं का वर्णन करना था, इसलिये किसी एक कथासूत्र का गठन नहीं हो सका। फिर दलपतिराव मुगल सत्ता के अधीन थे, अतः जहां जहां मुगल सेना के अभियान हुए, वहां वहां दलपति राव को युद्ध करने के लिये जाना पड़ा था, इस कारण भी घअना बहुलता स्वाभाविक है।

"दलपति राव रायसा' एक ६खण्ड काव्य' है। महाकाव्य की तरह न तो यह सर्गबद्ध है और न संध्या, सूर्य चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातः काल, मध्याह्म, आखेट, पर्वत, ॠतु, वन, समुद्र, संग्राम, यात्रा, अभ्युदय आदि विषयों का वर्णन ही किया गया है। पर इसका नायक क्षत्रीय कुलोद्भूत धीरोदात्त है। "दलपति राव रायसा' की कथावस्तु इतिहास प्रसिद्ध है। इसमें दलपति राव रायसा' की कथावस्तु इतिहास प्रस्द्धि है। इसमें दलपति राव के सम्पूर्ण जीवन का वर्णन न होकर केवल कुछ घटनाओं का ही वण्रन है इसलिये "दलपति राव रायसा'एक खण्ड काव्य रचना है। इसमें अनेक घटनाओं के जुड़े रहते हुए भी प्रबन्धात्मकता का निर्वाह किया गया है। पर यह अवश्य है कि वस्तुओं और नामों तथा जातियों लम्बी-लम्बी सूचियाँ उपस्थित कर कवि ने कुछ स्थलों पर प्रबन्ध प्रवाह में शिथिलता उपस्थित कर दी है।

प्रारम्भ से अन्त तक के सभी युद्धों में विजय श्री दलपतिराब के साथ ही लगी है चाहे दलपति राव ने युद्ध अपने पिता शुभकर्ण के साथ दक्षिण में किशोरावस्था में हीं क्यों न लड़ा हो-"लरौ सुदख्खिन देस में, प्रथम दूध के दनत' रायसे में कई स्थानों पर कवि ने दलपति राव के विजय प्रापत करने का उल्लेख इस प्रकार किया है-

"तहाँ सूर दलपत सुजित्यै'
अ    अ
"जीत सूद दलपत अकेलों।'
अ    अ
"जितौ श्री दलपत सुसूरं।'

जाजऊ का अन्तिम युद्ध शाह आलम, बहादुरशाह और आजमशाह के मध्य लडद्या गया उत्तराधिकार का युद्ध था, जिसमें दलपति राव ने आजमशाह का पक्ष लेकर युद्ध किया था। इसी युद्ध में इन्हें एक घातक घाव लगा तथा श्रीहरि मोहनलाल श्रीवास्तव के लेखानुसार कुछ समय पीछे इनका देहावसान हुआ। परन्तु रायसे के द्वारा इस बात की पुष्टि नहीं होती। रायसे में दलपति राव का वीरगति प्राप्त करना ही लिखा है। कवि द्वारा दिये गये प्रमाण इस प्रकार है-

"आंगे आजम साह के कटौं दल्लपत रावा'
अ    अ    अ
"राउ कटौ सुन खेत मैं सकल प्रजा बिलखाया'
अ    अ    अ
"जाजमऊ कुरखेत में, तिहि दिन कट नृप नाथा'

जाजऊ में ही दलपति राव की दाहक्रिया आदि भी की गई थी। रायसे के अनुसार इसका विवरण इस प्रकार हे-

"चल जाजमऊ मध्य सु आय सब्#े,
जहं चंदन वेस चिता रचियं।।'
तथा-
"कटै राव के संग जै, और सबै सामंत।
उत्तम चिताबनाय कै, दीनै दाह तुरन्त।।'

अत- यह स्पष्ट है कि जाजऊ की लड़ाई में दलपति राव को वीरगति प्राप्त हुई थी।

उपर्युक्त विवरण के अनुसार "दलपतिराव रायसा' प्रबन्धात्मकता से युक्त एक खण्डकाव्य रचना है।

""करहिया कौ रायसौ'' गुलाब कवि की छोटी सी खण्डकाव्य कृति है।

इसमें कवि ने अपने आश्रयदाता करहिया के पमारो और भरतपुराधीर जवाहर सिंह के मध्य हुए एक युद्ध का वर्णन किया है। डॉ. टीकमसिंह ने ""करहिया कौ रायसौ'' को खण्ड काव्य बतलाते हुए निम्न प्रकार अपना मत व्यक्त किया है- ""गुलाब कवि के "करहिया कौ रायसौ' नामक छोटे से खण्डकाव्य में करहिया-प्रदेश के परमारों का वर्णन करने से युद्ध के उत्तम वर्णन के तो काव्य में दर्शन हो जाते हैं, पर इससे कथानक की गति मंद अवश्य पड़ गई है।' यद्यपि गुलाब कवि को प्रबन्ध निबार्ह में सफलता प्राप्त हुई है तथापि परम्परा युक्त वर्णनों के मोह में पड़कर इन्होंने नामों आदि का बार-बार उललेख कर कथा प्रवाह में बाधा उपस्थिति की है। ""करहिया कौ रायसा'' का कथानक बहुत छोटा है। सरस्वती और गणेश की स्तुति के पश्चात् कवि ने आश्रयदाताओं की प्रशंसा की है तथा इसके पश्चात द्ध का वर्णन किया है, जिसमें अतिशयोक्तिपूवर्ंक करहिया के पमारों की विजय का वर्णन किया है। इसमें केवल एक ही मुख्य कथा ऐतिहासिक घटना प्रधान है। प्रांगिक कथा को कहीं स्थान नहीं मिलने पाया है। सूक्ष्म कथानक के कारण कथावस्तु वेगपूर्वक अन्विति की ओर अग्रसर होती हुई समाप्त होती है।

""शत्रुजीत रायसा'' में महाराजा शत्रुजीत सिंह के जीवन की एक अंतिम महत्वपूर्ण घटना का चित्रण किया गया है। घटना विशेष का ही उद्घाटन करने के फलस्वरुप ""शत्रुजीत रायसा'' एक खण्डकाव्य रचना है। ""शत्रुजीत रासौ'' की घटना यद्यपि छोटी ही है, परन्तु कवि के वर्णन विशदता के द्वारा एक लम्बे चौड़ कथानक की सृष्टि कर दी है।

महाराजा शत्रुजीतसिंह क्षत्रिय कुलोत्पन्न धीरोदात्त नायक है। शत्रुजीत रायसा का कथानक इतिहास प्रसिद्ध घअना पर आधारित है। रायसे में सर्ग विभाजन नहीं किया गया है। जल्दी जल्दी छन्द परिवर्तन द्वारा कवि ने सरसता और प्रवाह को पुष्ट किया है। शत्रुजीत रायसेमें कवि का लक्ष्य महाराजा शत्रुजीतसिंह की विजय का वर्णन करना है। ग्वालियर नरेश महादजी सिंधिया की विधवा बाइयों को महाराज शत्रुजीत सिंह ने सेंवढ़ा के किले में आश्रय दिया था, जिससे रुष्ट होकर सिंधिया महाराजा दौलतराव ने शत्रुजीतसिंह पर आक्रमण करने के लिये अंबाजी इंगले के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी थी, पहली ही मुठभेड़ में अम्बाजी ने दतिया नदेश के बल वैभाव की थाह लेली और ग्वालियर नरेश के पास और अधिक सेना भेजने हेतु सूचना पहुँचाई। सहायतार्थ फ्रान्सीसी सेना नायक पीरु सहित चार पल्टनें भेजी गई। दूसरी बार की मुठभेड़ में भयंकर युद्ध के पश्चात अनिर्णीत ही युद्ध रोकर दोनों पक्षों ने अपनी अगली योजनाओं पर विचार किया। यहाँ महाराज शत्रुजीत सिंह की विजय का लक्ष्य ""प्राप्त्याशा'' में संदिग्ध हो गया। दतिया नरेश की सेना के जग्गो, लकवा तथा खींची दुरजन साल ने सम्मिलित रुप में मोर्चा जमाया। उधर पीरु ने चार पल्टनों सात सौ तुर्क सवार तथा पाँच हजार अन्य सेना के साथ कूचकर चम्बल पार कर भिण्ड होते हुए इन्दुरखी नामक स्थान पर डेरा डाला। अम्बाजी इंगलें तथा पीरु की सम्मिलित सेना का सामना करने के लिये महाराजा शत्रुजीत स्वयं तैयार हुये परन्तु उनके सलाहकारों ने युद्ध का उनके लिए यह उचित अवसर न बताकर उन्हें युद्ध में जाने से रोक दिया। यहाँ शत्रुजीत रासो के कथानक में चौथा मोड़ है। महाराजा शत्रुजीत की विजय योजना में फिर एक व्याधात उत्पन्न हो गया। युद्धस्थल में ही विश्राम, शौच, स्नान, ध्यान, पूजापाठ आदि की क्रियाओं के द्वारा युद्ध की योजनाओं को बिलम्बित किया गया है। पीरु ने सिंध नदी के किनारे बरा गिरवासा ग्राम के कछार में मोर्चा जमाया तथा यहीं पर महाराजा शत्रुजीत सिंह से निणा#्रयक युद्ध हुआ। महाराजा शत्रुजीत सिंह विजयी तो हुए परंतु घातक घाव लगने से उनकी मृत्यु हो गई थी।

उपर्युक्त विवरण से ""शत्रुजीत रासौ'' की प्रबंधात्मकता पर अच्दा प्रकाश पड़ता है। कवि को कथासूत्र के निर्वाह में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है।

"श्रीधर' कवि का "पारीछत रायसा' एक प्रबंध रचना है। इसके नायक दतिया नरेश पारीछत हैं। इस रायसे में एक छोटी सी घटना पर आधारित युद्ध का वर्णन किया गया है। दतिया नरेश के आश्रित कवि ने अपने चरितनायक के बल वैभव और वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। महाराज पारीछत उच्च क्षत्रिय कुल में उत्पन्न धीरोदात्त नायक है।

"पारीछत रायसा'' के कथानक में दतिया और टीकमगढ़ राज्यों के सीमावर्ती गाँ बाघाअ में हुए युद्ध की एक घटना वर्णित है। युद्ध की घटना साधारण ही थी, परन्तु कवि ने कुछ बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया है। श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव के अनुसार-"श्रीधर के इस "पारीछत रायसा' में नरेश के सम्पूर्ण शासनकाल का चित्र तो नहीं है- उनके शासन-काल की एक महत्वपूर्ण घटना बाघाइट का घेरा कुछ विस्तार से वर्णित हुई है।' इस प्रकार "पारीछत रायसा' एक खण्ड काव्य है। टीकमगढ़ राज्य की ओर से बाघाइट के प्रबन्धक दीवान गन्धर्वसिंह ने गर्वपूर्वक दतिया राज्य के सीमावर्ती ग्राम पुतरी खेरा में आग लगवा दी थी और तरीचर गाँव टीकमगढ़ राज्य में मिला लिया, जो दतिया राज्य का एक गाँव थाफ महाराज पादीछत को इसकी सूचना मिलने पर उन्होंने दीवान दिलीपसिंह के नेतृत्व में एक सेना गन्धर्व सिंह को दण्ड देने के लिये भेजी। दतिया की सेना उनाव, बड़े गाँव आदि स्थानों पर पड़ाव करती हुई बेतवा को नौहट घाट पर पारकर बाघाइट के समीप पहुँची। दोनों ओर की सेनाओं में एक हल्की सी मुठभेड़ हुई फिर एक जोरादार आक्रमण में दतिया की सेना ने दीवान गन्धर्व सिंह की सेना की पराजित किया। बाघाइट में आग लगा दी गई विजय श्री महाराज पारीछत को प्रापत हुई। कथानक के प्रवाह में सर्वत्र सरल गतिमयता तो दिखाई देती है, परन्तु सरदारों के नामों और जातियों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ प्रस्तुत करके कवि ने कथा प्रवाह में बाधा उत्पन्न की है। फिर भी कहा जा सकता है कि श्रीधर को प्रबन्ध निर्वा में पर्यापत सफलता मिली है। इस रायसे के कथानक को सर्गों में विभाजित नहीं किया गया। काव्य नायकके जीवन काल की किसी घटना विशेष का चित्रण हीहोने के कारण ऐसे काव्य आकार में इतने संक्षिप्त होते हैं, जितना कि किसी महाकाव्य का एक सर्गा अतः उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि "श्रीधर' कवि द्वारा लिखित "पादीछत रायसा' प्रबंध प्रवाह से युक्त एक खण्डकाव्य रचना है।

""बाघाइट कौ राइसौ'' में भी दतिया और टीकमगढ़ राज्यों के सीमा विवाद की घटना पर ही आधारित एक संक्षिप्त सा कथनक है। श्रीधर कवि का पारीछत रायसा एवं प्रधान आनन्द सिंह का ""बाघाइट कौ राइसौ'' एक ही घटना और पात्रों पर लिखे गये दो अलग-अलग काव्य हैं। इन दोनों ग्रन्थों में मूलतः एक ही कथानक समाहित होते हुए भी वर्णन की दृष्टि से पर्यापत अन्तर है। बाघाइट को राइसौ के वर्णन बिल्कुल सीधे सादे अतिशयोक्ति रहित हैं। कवि दरबारी चाटुकारिता से अल्प प्रभावित दिखलाई पड़ता है। श्रीधर विशुद्ध प्रशंसा काव्य लिखने वाले, धन, मान, मर्यादा के चाहने वाले राज्याश्रित कवि थे, संभवतः इसी कारण ""पारीछत रायसा'' के सभी वर्णन अतिशयोक्ति से पूर्ण है। गन्धर्वसिंह दीवान, गनेश तथा महेन्द्र महाराजा विक्रमजीत सिंह के परामर्श का विवरण वाघाइट कौ राइसो में कुछ छन्दों में लिखागया है, जबकि पारीछत रायसा में लगभग तीन पृष्ठ में यह बात कही गई है। प्रधान आनन्द सिंह ने मंगलाचरण के पश्चात केवल यह लिखकर आगे की घटना की सूचना दे दी है-"श्री महेन्द्र महाराज ने तरीचर लैबे कौ मनसूबा करौ' इसी बात को पारीछत रायसा में यह साफ लिखा गया है कि दतिया नरेश ने सदैव ओरछा के महेन्द्र महाराज की रक्षा की तथा-"" रज राजतिलक महाराज नें हमको यह उनही दियव।'' अर्थात् दतिया महाराज ने ही विक्रमाजीतसिंह को राजतिलक किया थ। इसी कारण ओरछा नरेश महाराज पारीछत को सम्मान की दृष्टि से देखते थे। दीवान गन्धर्वसिंह के द्वारा पुतरी खेरा ग्राम में आग लगा दी गई तथा तरीचर ग्राम को अपने अधिकार में कर लिया गया था। लल्ला दौवा नाम के प्रबन्धक ने दतिया नरेश के पास इस घटना की सूचना भेजी, जिसके परिणामस्वरुप दतिया नरेश ने बाघाइट को उजाड़ने तथा दीवान गन्धर्व सिंह को दण्ड देने के लिए सेना भेजी। पारीछत रायसा में सैनिकों के सजने एवं सेना प्रयाण का बहुत विस्तृत और अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है, किंतु बाघाइट कौ राइसौ में सेना तथा युद्ध के सामान का साधारण सा वर्णन किया गया है। सेना के प्रस्थान एवं पड़ाव के स्थानों की केवल सूचना भर कवि ने दे दी है। जबकि पारीछत रायसा में उनाव, बड़े गाँव, नौहट घाट आदि पर सेना के पड़ाव के साथ-साथ (उनाव में) दीवान दिलीप सिंह के स्नान, पूजा, शिकार आदि का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।

""बाघाइट कौ राइसौ'' में युद्ध की मारकाट का बहुत सूक्ष्म और साधारण वर्णन किया गया है। कवि ने घटनाओं की संक्षेप में सूचना देते हुए कथानक को समाप्त किया है। अतः स्पष्ट है कि महाराज पारीछत के जीवन की घटना विशेष पर आधारित ""बाघाइट कौ राइसौ'' एक खण्ड काव्य है।

जिस प्रकार "पादीछत रायसा' और "बाघाइट कौ राइसौ' एक ही घटना पर लिखे गये दो काव्य हैं, ठीक उसी प्रकार प्रधान कल्याण सिंह कुड़राकृत "झाँसी कौ राइसौ' तथा मदन मोहन द्विवेदी "मदनेश' कृत "लक्ष्मीबाई रासो की कथावसतु एक ही चरित नायक के जीवन पर लिखे गये दो भिन्न भिन्न काव्य हैं।

वीर काव्यों का नायक किसी स्री पात्र का होना एक विलक्षण सी बात है। पर महारानी लक्ष्मीबाई के चरित्र में वे सभी विशेषतायें थीं, जो एक वीर योद्धा केलिए अपेक्षित थीं। प्रधान कलयाण सिंह कुड़रा तथा "मदनेश' जी द्वारा लिखे गए दोनों रायसे प्रबन्ध परम्परा में आतें हैं। दोनों में ही रानी लक्ष्मीबाई के जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया गया है। अत- ये काव्य ग्रंथ खंड काव्य की कोटि के हैं। कल्याण सिंह कुड़रा कृत "झाँसी कौ रायसौ'' को श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने साहित्यिक प्रबंध बतलाया है। परंतु प्रधान कल्याण सिंह को प्रबन्ध निर्वाह में विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि ग्रन्थारंभ में इन्होंने पहले गणेश सरस्वती आदि की वंदना के पश्चात् अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति की सूचना संकेतात्मक ढंग से दी है और इसको यहीं छोड़कर झाँसी की रानी और नत्थे खाँ प्रसंग समाप्त होता है, वहाँ से फिर कथा सूत्र में विचिछन्नता आ गई है। कवि ने झाँसी, कालपी, कांच तथा ग्वालियर के युद्धों में संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किये हैं। इन सबकों पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि कवि द्वारा इस ग्रंथ की रचना टुकड़ों में की गई है। इसी कारण कथा प्रवाह में एक सूत्रता नहीं रहने पाई। फिर भी "झाँसी कौ राइसौ' का कथानक इतिहास प्रसिद्ध घटना पर अधारित है और इसमें यथा समभव प्रबन्ध निर्वा का प्रयास किया गया है।

"मदनेश' कृत 'लक्ष्मीबाई रासो' की कथा को सर्गो में विभाजित किया गया है। इसके प्रारम्भ के आठ सर्ग ही उपलब्ध हैं, जिनमें झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई तथा नत्थे खाँ के साथ हुए हुए युद्धों का ही वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में वीरों, हथियारों, घोड़े, त्यौंहारों, सेना, राजसी वैभव आदि के विस्तृत वर्णन के साथ ही साथ युद्ध की घटनाओं का भी अत्यन्त रोमांचकारी और विशद वर्णन के साथ ही साथ युद्ध की घटनाओं का भी अत्यन्त रोमांचकारी और विशद वर्णन किया है। "मदनेश' जी की घटनाओं के संयोजन और प्रबन्ध निर्वाह में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है, परन्तु कतिपय स्थानों पर वीरों, हथियारों, जातियों आदि की लम्बी-लम्बी सूचियाँ गिनाने की परम्परा का अनुकरण करके इन्होंने कथ प्रवाह में शिथिलता भी उत्पन्न की है। कुल मिलकार "लक्ष्मीबाई रासौ एक खण्ड काव्य है।
"पारीछत कौ कटक' कुछ कविताओं के रुप में और कुछ फुटकर छंदों के रुप में उपलब्घ हुआ है, जिनमें एक सूक्ष्म सा कथानक टुकड़ों में उपलब्ध होता है। कवि का उद्देश्य किसी कथानक की रचना का नहीं रहा होगा वरन् महाराज पारीछत की सेना, हाथियों आदि का वर्णन करना ही होगा। इसी प्रकार भग्गी दाऊजू "श्याम' द्वारा रचित "झाँसी कौ कटक' कफछ गीतों की एक खण्ड रचना है जिसमें महारानी लक्ष्मीबाई और उनके प्रमुख सरदारों के शौर्य की प्रशंसा तथा नत्थे खाँ के पक्ष के सैनिकों की हीनता का वर्णन किया गया है। "भिलसांय कौ कटक' अपेक्षाकृत कुछ बड़ी रचना है तथा इसमें प्रबन्धात्मकता का निर्वाह किया गया है। इस काव्य ग्रंथ में अजयगढ़ राज्य के दीवान केशरीसिंह और बाघेल वीर रणमत सिंह के मध्य हुए कुटरे के मैदान के एक युद्ध की घटा का वर्णन किया गया है।

छछूंदर रायसा ", "गाडर रायसा' और "घूस रायसा' में कथा प्रवाह है। "छछूंदर रायसा' बहुत छोटी रचना है, फिर भी इससे एक छोटे से कि कथानक का निर्माण होता है।, "गाडर रायसा" और "घूस रायसा' दोनों में ही कथा योजना सुन्दर की गई है। तीनो हास्य रायसे प्रबन्ध रचनाओं की कोटि मं आते हैं। आकार की दृष्टि से छोटे होते हुए भी व्यंग्य की दृष्टि से ये हास्य रायसे बहुत महत्वपूर्ण हैं।

उपयुक्त विवरण के अनुसार यह कहा जा सकता है कि विवेच्य रासो काव्य मूलत- प्रबन्ध रचनायें हैं। इनके कथानक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर चुने गये हैं।

 

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History of Bundelkhand Ponds And Water Management - बुन्देलखण्ड के तालाबों एवं जल प्रबन्धन का इतिहास : बांदा जिले के तालाब (Ponds of Banda)

History of Bundelkhand Ponds And Water Management - बुन्देलखण्ड के तालाबों एवं जल प्रबन्धन का इतिहास

बांदा जिले के तालाब (Ponds of Banda)

ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में इस क्षेत्र में एक वामदेव ऋषि रहा करते थे, जिनके नाम पर इसको बांदा कहा जाने लगा था। इस जिले की भूमि भी पहाड़ी, पठारी, ऊँची-नीची, खन्दकी है। खन्दकी खन्दकों जैसी भूमि होने से वर्षा ऋतु में समूचे खन्दक छोटे-छोटे तालाबों में तब्दील हो जाते हैं, भूमि दलदली हो जाती है।

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - लक्ष्मीबाई रासो (Laxmibai Raso)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

लक्ष्मीबाई रासो (Laxmibai Raso)

छन्दमदनेश जी ने प्रायः कल्याणिंसह कुड़रा कीछन्द शैली को अपनाया है। कुड़रा कृत "झाँसी कौ राइसौ' में छन्दों के नाम न दिये जाकर सबको छन्द के नाम से ही रखा गया है। केवल दोहा, चौपाई, कवित्त आदि को ही कवि ने स्पष्ट नाम दिया है। मदनेश जी ने भी लक्ष्मीबाई रासो में हरिगीतिका मोती दाम, पद्धति आदि छंदों का नाम न देकर केवल छंर मात्र लिख दिया है। ऐसे ही कुछ और भी छंद है जिनका कवि ने नामकरण नहीं किया है। उदाहरण स्वरुप -"जब करन चाळौ पयान। गर्धव सुनाई तान' इस धारा केअन्य कुछ कवियों के ग्रन्थों में भी इस छन्द का नाम नहीं दिया गया है। उपर्युक्त के अतिरिक्त इस रायसो में दोहा, चौपाई, सोरठा, कुण्डलियां, कवित्त, आल्हा चौपाई, सिहर या सैर, अमृत ध्वनि, किरवान तथा छप्पय आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। साकी नाम का छंद प्रायः दोहा छन्द का ही रुप है। दोहे को गेय बनाने के लिए उसमें कुछ और शब्द या शब्दांश जोड कर प्रायः ग्रामीण लोगों को बमभोला गाते भी सुना जा सकता है। कवि ने सिहर या सैर तथा अाल्हा चौपाई छंदों के साथ साकी छंद का प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि ये दोनों छंद गेय हैं और इनके साथ संगति बिठाने के लिए दोहे को इस रुप में प्रस्तुत किसर गसर है। पहले दोहे को गवैया उतार चढ़ाव के साथ ध्वनि खींचकर संयत रुप सेगाता है और फिर ओज पूर्ण रुप में आल्हा चौपाई पढ़ता है। साकी और आल्हा चौपाई का उदाहरण इस प्रकार है।

साकी - सकत सेन तौ अब विचला दई, जा पौंचे बाई के पास।
कुन्नस करतन बाई लखे, उर मैं उपजौ अधिक हुलास।।
आल्हा चौपाई- तब मन मुस्क्याकें रानी, सो सबहिं कहा समुझाय।
आज बात चंपा नें, है मेरी राखी आय।।'

उपर्युक्त पंक्तियों में साकी छंद और आल्हा चौपाई का तालमेल ठीक दिखलाई पड़ता है। वैसे ऊपर के साकी छंद का दोहा रुप निम्न प्रकार होगा।

"सकल सेन बिचला दई, पौंचे बाई पास।
कुन्नस करतन बाई लख, उपजौ अधिक हुवास।।

डॉ. भगवानदास माहौर ने गृन्थ के भूमिका भाग में इस छंद का हवाला दिया है। उन्हें झाँसी के ही श्री नारायण प्रसाद रावत ने साकी को दीर्घ दोहा बतलाया था। जिस प्रकार के आल्हा छंद का प्रयोग मदनेश जी ने किया है उसमें प्रथम और तृतीय चरण में १२-१२ एवं द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में १३-१३ मात्रायें हैं जो आल्हा छंद जिसे वीर छंद कहते हैं की श्रेणी में नहीं आता क्योंकि वीर के प्रतयेक चरण में ३१ मात्रायें एवं अंत में गुरु लघु होता है।

सिहर नाम का छंद बुन्देलखण्ड में प्रलित सैर छंद ही है। अमृत ध्वनियों का प्रयोग युद्ध वर्णनों में किया गया है। इस छंद के प्रत्येक चरण में २४-२४ मात्रायें एवं छै चरण होते हैं पर मदनेश जी ने अमृत ध्वनियों से पहले दोहे की दो पंक्तियां फिर चार पंक्तियां अमृत ध्वनि की रखी है। ऐसा भी देखने को मिलता है कि किसी-किसी अमृतध्वनि के चरणों में मात्रायें कम व अधिक भी हैं। इस दृष्टि से इसे रासो ग्रंथ में प्रयुक्त छंद शैली कुछ विशिष्टता से पूर्ण है। मनदेश जी ने प्रचलित छंदों को भी कुछ नवीन रुप देकर रखा है। छंदों के उतार-चढ़ाव आदि में कोई विशेष अन्तर नहीं आया है।

"छछूंदर रायसा' में दोहा तथा नराच छंदों का प्रयोग किया गया है। "गाडर रायसा" में कुण्डरिया, छंद को दो तीन रुपों में प्रयुक्त किया गया है। "घूस रायसा' में दोहा, कुण्डरिया, सोरठा, भुजंग प्रयात तथा कवित्त छंदों का प्रयोग किया गया है।
आलोच्य काव्यों में प्रयुक्त छन्दों का विभाजन निम्न प्रकार किया जा रहा है-

१. मात्रिक छंद अ. सम ब. अर्द्ध सम।
२. वर्णिक छंद अ. सम ब. मुक्तक।
३. अनिश्चित छंद-मात्रिक, वर्णिक।

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - झाँसी की रायसौ (Jhansi Ki Raisau)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

झाँसी की रायसौ (Jhansi Ki Raisau)

रस (Ras)

"झाँसी कौ राइसौ' में रस चित्रण अल्प मात्रा में किया गया है। केवल तीन उदाहरण वीर रस के तथा दो-दो वीभत्स औ करुण रस के हैं। यहाँ इन रसों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं-

वीर रस (Veer Ras)

""आयौ कड़अकड़ अनी तै वौ पलेरा वार,
मन पुरा के मधुकर निहारौ नैन जाइकै।
दोऊ वर बांहन खिंची है तेग एक संग,
इतवित उछाह भी बड़ाई बड़ पाइकै।।
कहत "कल्यान' रनधीर की कृपान घली, 
देख दरम्यान लई ढालनि बरकाइकै।
क्रोध कर मधुकर त्रसुधि कर प्रहारी तेंग,
गरदन समेत सिर गिरौ महि आइकै।।''

उपर्युक्त उदाहरण में दो सेना नायको पलेरावार तथा मनपुरा के मधुकर के द्वन्द्व युद्ध वीरत्व व्यंजक वर्णन किया गया है। वीर रस वर्णन के लिए कवि ने कवित्त, छप्पडय तथा कृपाण आदि छन्दों का प्रयोग किया है।

वीभत्स रस(Veebhats)

"लगे खग झुन्डन आमिष खान। जंबुक कूकर और मसान।''

वीभत्स रस चित्रण भी अधूरा सा ही है। पूर्ण रुपेण रस सृष्टि कवि ने उपस्थिति कर नहीं पाई है।

करुण रस(Karun Ras)

""सांसे लेत सोचत संकोच करै नत्थे खाँ,
पूछै सिरकार तिनै का कहि समझाइहौं।
उड़ी है खजानौ लरै तीन महीना लौं दल,
सकल विलानौ सु तो कौन कौन गाइ हौं।
कहत "कलियान' वान वीत गई झाँसी पै, 
गांसी सी टेहरी मांहि हांसी न कराइ हौं।
विजन कराइहौं अंगरेज सौं लराइ हौं,
तौ लड़ईमहारानी कौं वदन बताइहौं।''

तथा -

करुण रस के उपर्युक्त उदाहरणों में टेहरी ओरछा राज्य के मुख्त्यार नत्थे खाँ की झाँसी में भयंकर पराजय के पश्चात् कीमनोदशा का करुण चित्रण करने का प्रयास किया गया है। वर्णनों से यह स्पष्ट होता है कि इस ग्रन्थ में रस चित्रण साधारण कोटि का ही है।

"मदनेश' कृत लक्ष्मीबाई रासो में प्रसंगानुकूल कथावस्तु को रस मय बनाने के लिए शृंगारपूर्ण स्थलों की सृष्टि के द्वारा वीर के विरोधी रस शृंगार #ो भी उपयुक्त स्थान दिया है। इसके साथ ही युद्ध के मैदान में रौद्र, भसयानक और वीभत्स रस का भी अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण किया गया है। कहीं-कहीं हास्य एवं अद्भूत रस के भी दर्शन होते हैं।

वीर रस(Veer Ras)

लक्ष्मीबाई रासो में युद्ध के अनेक स्थलों पर कवि ने वीर रस के समायोजन में सफलता प्राप्त की है। मारकाट,ख् पैंतरे, हथियारों, घोड़ों सरदारों की उक्तियों, युद्ध संचालन आदि स्थितियों के अनेक उदाहरण इस ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं।
जैसे 

""कंपत पफरैं कायर सपूत सतरात फिरैं,
भहरात वीर बही चहूँ ओर धारा है।
गजब गिरौ है कै परौ है वज्र टूटि कैधों,
छूटौ विष्णु चक्र भृगु फरस प्रहारा है।
मुलकन में नामी सनमानी महीपन की, 
ताकी जिन्दगानी कर दई धूरछारा है।
"मदनेश' किले कीकमानी मिजमानी करी,
मुलक मैदान को पिदान फार डारा है।।''

उपर्युक्त छन्द में महारानी लक्ष्मीबाई के तोपची दोस्तखाँ के द्वारा चलाई गई "मानी' नामक तोप के द्वारा नत्थे खाँ की नामी तोप "मुलक मैदान' का पिदान अर्थात तोप का ऊपरी भाग फाड़ डालने का ओजस्वी वर्णन किया गया है। 

यही नहीं, झाँसी की निम्नमानी जाने वाली जातियों के लोगों के द्वारा दिखलाई गई वीरता का वर्णन भी कवि ने बड़े ओजपूर्ण शब्दों में किया है-

यथा-

"लपट झपट कै कुरिया, धाये गहि कठिन क्रपान।
जहं तहं गुदलन लागै, बड़ टीकम गढ़ के ज्वान।।
चमरा दै दै गारी, उर मारै बरछी बान।
बाड़ई हनै बसूला, चीड़ारे सिरकी सान।।
हनै दुहत्तू तक कै, काछी कुलार कुधाना
बका बसोर चलावै, काअ#े#ं मूरा अनुमान।।
हनै सुनार हतोरा, खुल जाय खौपड़ा खान।
फूट जाय बंगा सौ, सौ लौऊ पिचक प्रवान।।'' आदि

स्पष्ट है कि रासो ग्रन्थ में कवि ने वीर रस वर्णन में कुशलता का परिचयत दिया है।

शृंगार(Srangar)

वीर रस प्रधान ग्रन्थ होते हुए भी लक्ष्मीबाई रासो में कुछ स्थलों पर शृंगार रस का परम्परायुक्त वर्णन किया है। सावन के भुजरियों के त्योहारके अवसर पर झांसी की युवतियों का नखसिख सौन्दर्य वर्णन, नत्थे खाँ के पंचों के पहुंचने पर झाँसी रंगमहल की सजावट, आदि का शृंगारपूर्ण वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त युद्धस्थल में वीरों की सजावट, हाथी व घोड़ों व की सजावट का वर्णन, युद्ध वेष धारण करते हुए महारानी लक्ष्मीबाई का भी शृंगारयुक्त वर्णन है। एक दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जाते हें-

"तन कुन्दन चंपक सौ मुलाम। मृगनयनी सुकनासिकी बाम।'
"बहु मृगनयनी नाजुक शरीर। कट केहर नाभ अति गम्भीर।'

उपर्युक्त छन्दों के नारी र्सौन्दर्य वर्णन में कवि ने आभूषणों की गिनती गिनाकर रस चित्रण में किंचित अस्वाभाविकता उत्पन्न कर दी है। इसी प्रकार सरदारों, सिपाहियों, हाथी, घोड़ों की सजावट के वर्णनों में भी आभूषणों की सूचियाँ गिनाई गई हैं।

करुण(Karun)

नत्थे खाँ की हार का समाचार सुनकर टेहरी वाली रानी लिड़ई सरकार के शोक संतप्त होने तथा झाँसी के वीरों के युद्ध भूमि में मारे जाने का समाचार सुनकर महारानी लक्ष्मीबाई को शोकाकुल स्थिति का वर्णन करने में करुण रस की सृष्टि हुई है। उदाहरण निम्नप्रकार दिए जा रहे हैं।

"सुन पाती मुरझाय गिरी भूपर जाई।
नत्थे खाँ ने झाँसी की खबर पठाई।।
तब दौर ताय चैरिन नें लई उठाई।
ऐचत उसांस ऊंची मुख बचन न आई।।
कपंत शरीर पीर बड़ी उर में छाई।
नैनन से नीर डारे मुखगयौ सुखाई।।
हा राम भई कैसी का करौं उपाई।
दल कटौ माल लुटो और भई हंसाई।
।''

उपर्युक्त छन्दों में लिड़ई सरकार की शोकातुर स्थिति का स्वाभाविक चित्र अंकित करने का प्रयास किया गया है। दु:ख की स्थिति में मूर्छित होना, ऊध्वर् श्वांस, प्रश्वास खींचना, वाणी रुंधना, कांपना, आंसू गिरना, प्रलाप आदि करुण रस को पुष्ट करने वाले अवयव है।
मधुकर की मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई की दु:खमय दशा देखिये।

"मधुकर मरन सुनौ जबहीं, भई बाई व्याकुल अत तबहीं।
हा मधुकर सुत आज्ञाकारी, तुम बल रोर लई ती रारी।
अब केही के बल करौं लराई, अस विचार जिय जागहु भाई।
छिन मोहि दुखित न देखहु वीरा, अब का होत न तन मैं पीरा।
पुन पुन लोचन मोचत बारी, निरख दशा भटीभए दुखारी।।''

कहना न होगा कि उपर्युक्त छन्द में कवि ने करुण रस उत्पन्न कर दिया है। मधुकर की मृत्यु से रानी लक्ष्मीबाई को तो दुख हुआ ही, वरन् रानी की दशा देखकर उपस्थित वीर सरदार भी दुखी हो गये।

वीभत्स(Veebhats)

इस कवि ने अपने ग्रन्थ में दो तीन स्थलों पर युद्ध क्षेत्र में वीभत्स वर्णन किये हैं। श्रोणित, कीच, चील, गिद्ध, श्वास, वायस, सियारों आदि का लाशें चींथना, भूत प्रेत, पिशाच पिशाचिनी आदि के समूहों का रक्त पान करके युद्ध क्षेत्र में नाचना, लाशों का ढेर, रक्त की नदी, हाड़ मांसआदि के द्वारा वीभत्स चित्र उपस्थिति किये गये हैं। नीचे एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है-

"जाँ ताँ लरत भट स्त्रवत शोणित वीर सन्मुख घावहीं।
मारहिं परस्पर क्रोध कर घर मार मार सुनावहीं।
कोउ नयन कर पग हीन डोलत भूमि बोल अधमरे।
गई धरा शोणित भींज धारा बहत भू गड्डा भरै।
बहु गृद्ध स्वान शृगाल वायस झुंड आमिष खावहीं। 
बहु भूत प्रेत पिशाच जोगिन ताल दै दै गावहीं।।''

रौद्र एवं भयानक(Raudra and Bhayanak)

युद्ध क्षेत्र के वातावरण की विकरालता में इन रसों का प्रसंगवश वर्णन आ गया है। ऐसे स्थल इस ग्रन्थ में अधिक नहीं हैं। परन्तु जितना भी वर्णन किया गया है वह अच्छा ही है। कुछ अमृत ध्वनि छन्दों में भी रौद्र और भ्यानक का चित्रण किया गया है। नीचे उक्त रसो के एक दो उदाहरण दिये जा रहे हैं-

"दोऊ ओर तन बोल धर मार बानीफ झपट्टे करे सूर कैइक गुमानी।।' 

तथा 

"दोऊ भिरे बलबीर काटे भअन के उर भुज शिरा।
रन लगन महि मैं परत पुन उठ भिरत घावै भिरभिरा।।
भसनेह की दआर्उ तब तरवार लैं आगै बड़ौ।
इततैं सु केरुआ कौकुंअर कर क्रोध सामैं जा अड़ो।।'

हास्य रस(Hasya Ras)

वीर रस प्रधान रचना होते हुए भी मदनेश जी ने इसमें हास्य रस की योजना की है। नत्थे खाँ की फौज के सिपाहियों का हतोत्साह होकर बीमारी का बहाना करना, खोबा भर गुरधानी बांटना, सिपाहियों का भूखों मरना आदि का हास्य पूर्ण चित्र निम्नांक्ति पंक्तियों में देखा जा सकता है-

"महिना हौन लगौ इक आई। लागे भूंकन मरन सिपाई।।
यही ठाट नत्थे खाँ ठाटे। खोवा भर गुरधानी बांटे।
जुड़री चना चून तिन पौड़ा। सबै रात के बांटे दौआ।
टुटी दार की तन तन नौना। पान तमाखू कछू बचौ ना।
अब विचार सब करै सिपाई। कैसे हुं भाग चलौ रे भाई।
जो बीमारी कौ मिस लेवैं। नत्थे खाँ छुट्टी नहिं देवें।।
करै और इक अति कठिनाई। ताकी देबै लाग घटाई।
मरै दो दिना भूकन जोई। कहन लगे अच्छे भए सोई।।
'


छन्द(Chhand)

उपलब्ध रासो ग्रन्थों में प्राचीन काव्य परम्परा के अनुसार ही छन्द विधान का स्वरुप पाया जाता है। अधिकांश कवियों के छन्द प्रयोग बहुत कुछ एक जैसे हैं। आलोच्य कवियों के द्वारा प्रयुक्त छन्दों की समीक्षा निम्न प्रकार प्रस्तुत की जा रही है-

"चन्द' ने परिमाल रासो में अनेक छन्छों का प्रयोग किया होगा, परन्तु उपलब्ध अंश में ५ प्रकार के छंदों का प्रयोग मिलता है। इन्होंने भुजंगी, भुजंग प्रयात एवं छप्पय का अधिक प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त दोहा तथा अरिल्ल छन्द प्रयुक्त हुए हैं।

"दलपति राव रासो' में जोगीदास ने दोहा, कवित्त, छन्द, छप्पय, भुजंगी, सोरठा, पध्धरी, नगरस्वरुपिणी, मोती दाम, नराच, अरिल्ल, अर्धनराच,    कंजा, पध्धर रोला, त्रिभंगी, भुजंग प्रयात, किरवांन आदि अठारह प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। कवि ने "छन्द' नाम के छन्द को तीन रुपों में प्रयोग किया है। प्रथम रुप में १२ वर्ण हैं, जो भुजंगी छन्द के अधिक निकट हैं। दूसरे प्रकार में छन्द के प्रत्येक चरण में २० वर्ण एवं तीसरे के छंद में ८, ८ वर्णों की यति से चार चरण हैं।

"करहियो कौ राइसौ' में गुलाब कवि ने तेरह प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, चौपाई, पद्धति, दोहा, अमृतध्वनि, कुंडलियां, छप्पय, भुजंगी, मोतीदाम, मालती, दुर्मिल सवैया, कवित्त तथा हनुफाल आदि। छन्दों के लक्षणों को दृष्टिगत रखकर गुलाब कवि ने छन्द योजना नहीं की जान पड़ती है। अतः अधिकांश छन्द दोष पूर्ण है। प्रायः मोतीदाम, मालती तथा दुर्मिल दोषपूर्ण हैं।

शत्रुजीत रासो में मुख्यत-: दोहा, कवित्त, छप्पय, तोटक या तोड़क, हनुफाल भुजंगी, छन्द, भुजंग प्रयात गीतिका, चौपाही, त्रिभंगी, मोती दाम या मोती, माधुरी, पाधरी या पध्धरी तथा किरवांन आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। उपर्युक्त तोटक या तोडद्यक प्राय- त्रोटक का तद्भव रुप है। इसी प्रकार मोतीदाम तथा छन्द भी एक ही हैं।

श्रीधर कवि ने भी पारीछत रायसा में तेरह प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, जो इस प्रकार है- छप्पय, दोहा, सोरठा, छंद, कवित्त, भुजंगी, त्रिभंगी, त्रोटक, मोतीदाम, कुंडरिया, नराच, तोमर तथा क्रवांन। "छन्द नाम के छन्द को कई रुपों में प्रयुक्त किया गया है।

"बाघाट रासो" में दोहा, अरिल्ल, कवित्त, कुंडरियां, तथा छंद आदि केवल पांच प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है। छन्द योजना कहीं कहीं सदोष भी है।

"झाँसी कौ राइसौ' में कल्याणसिंह कुड़रा ने दोहा, सोरठा, कुंडलिया, कवित्त, छप्पय, कृपाण, सवैया अमृत ध्वनि तथा छन्द आदि प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। सवैया मालती है, केवल एक स्थान पर इसका प्रयोग किया गया है। कवित्त छंद में १६-१५ की यति पर कुल ३१ वर्ण हाते हैं, परन्तु कल्याणसिंह ने जिस छन्द को केवल छन्द नाम से प्रयोग किया है उसे पांच प्रकार के छन्दों में विभक्त किया जा सकता है। यह छंद भुजंगी, मोतीदाम, हनुफाल, त्रोटक एवं माधुरी है। अमृत ध्वनि नाम के छन्द में एक दोहा और एक रोला होता है, परन्तु प्रधान कल्याण सिंह ने केवल रोला ही प्रयुक्त किया है।

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - रस (Ras)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

रस (Ras)

वीर रस (Veer Ras)

जोगीदास द्वारा दलपति रायसा' में रासो काव्यों की प्रवृत्ति के अनुरुप वीर रस को प्रधानता दी गई है। वीर रस के अन्तर्गत युद्ध वीर एवं दानवीर के उदाहरण इस रायसे में पाये जाते हैं। युद्ध वीर एवं दानवीर का एक-एक उदाहरण निम्नलिखित है-

युद्ध वीर(Yuddha Veer) :

"हत दष्षिनिय सकल लेउ धर बाँध सेन सब।
आज प्रलय कर देउ लूट कर लेउ अरन अब।।
की धरहु अब सबअत्र सत्र छांड़हु सूर सब।
होउ नार के भेष जाउ फिर वेग अप्प घर।।
इम दाब रहे सूबहिं सकल अकल विकल तहं सैन मंह।
नहि चलत चातरी एक हू फौजदार तकत तंह।।''

उपर्युक्त छन्द में वीरों में युद्ध के लिए उत्तेजक शब्दाकं के द्वारा युद्ध करने की प्रेरणा का संचार किया जा रहा है। उन्हें चुनौती देकर उत्साहित किया जा रहा है, कि यह तो युद्ध क्षेत्र में प्रलय मचा दो अथवा सारे हथियार यहीं डाल कर स्री का वेष धारण कर अपने घर जाओ।
तथा

""करन के काज वैस बहुतक भीरभंजीकीनौ बोल ऊपर किती न करी गोल में। 
बाजी षग्गताली काली फिरत खुसाली हाली लाली लख काली कंत फिरत कलोल में। 
हालै मेघडम्बर आडम्बर अरावै छूटै बानैत बिहारीकौ डगौ न डगाडोल में। 
मुहरा कै मारे हाथी हाथिन के मारे साथी आगरैं उमड़ लरौ गंगाराम गोल में।''

उपर्युक्त छन्द में गंगाराम नाम के एक वीर सरदार के युद्ध का वीर रस पूर्ण तड़क-भड़क से युक्त शब्दावली में वर्णन किया गया है।

दानवीर(Danveer) :

निम्निलिखित एक कवित्त में राजा दलपति राव को दानवीरता का चित्रण किया गया है। उनके द्वारा ब्राह्मणों, भाटों को दिये गये दान का अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दावली में वर्णन किया गया है-

विप्रन कौ विध् सौ बनाय के सुवेदरीत पुन्न पन प्रीत राजनीति के विचार के।
भाटन को जस के प्रगास कहि जोगीदास करत कवित्त नितदान हथियार के।।
छत्रिन को छत्रधर धर्म देष सारधार और सेवादार गुन वारिन उदार के।
पंचम श्री दलपति राउ दान दिलीप से कैयकन हाथी दये कैयक हजार के।।'

शृंगार रस(Shrangar Ras)

"दलपति राव रायसा' में शृंगार को स्थान नहीं दिया गया है।

रौद्र रस(Raudra Ras)

प्रस्तुत रसो गनथ में रौद्र रस के यत्र तत्र उदाहरण प्राप्त हो जाते हैं। वीर रस के पश्चात वीर काव्यों में इस रस का प्रमुख स्थान है। एक छन्द में महाराजा दलपति राव द्वारा आजम शाह से कही गई दपं पूर्ण उक्तियों का सुन्दर चित्रण देखिए-

"सुनत यहै दलपत राउ तबही कर जोरेउ।
दान क्रवान प्रवान जंग कह मुखनहि मोरेउ।।
करहु मार असरार सत्र की सैन विडारहु।
श्रोनित की कर कीच सीस ईसह सर डारहु।।
बुन्देलखण्ड बुन्देल स्वांम काज चित्त धरहूं।
इन भुजन खेम आलंम्य दल पारथ सम भारथ करहुं।।''

भयानक(Bhayanak) :

युद्ध क्षेत्र में कई स्थलों पर ऐसे वर्णन उपस्थित किए गए हें। एक छन्द देखिये-

"सजै तिहि सैन चैन जात है गनीमन को कैसे करपंचम सौपैज के अरत है।
वंकट मवासे उदवासे जिहि जीत करे बसत सुवासे रसे दंड जै भरत है।
सूर सुभ साह सुयवानैत प्रबल हुय पारथ समान भिरभारथ करत है।
कहै जोगीदास राउ दलपत जू के त्रास साहन के शत्रु अत्र छोर के धरत है।''

वीभत्स(Veebhats)

युद्ध क्षेत्र मं वीभत्स रस के वर्णन इस रायसे में बहुलता से पाये जाते है। वीरों के सिर, हाथ, पैर कटने, चील, गिद्ध, काली भूत प्रेतत, योगिनी आदि की जमातों का वीभत्स वर्णन इन स्थलों पर किया गया है। एक चित्र देखिये-

"जहाँ धौसन बजावै बाड़ी मारु रागगावै देव देवन सुआवै छावै गगन विमान।
जहां गौरी हरषावै भूतप्रेत हुउ भावै देष जुग्गिन सिहावै करैं नारद बखान।।
जहां चिल्ल गिद्ध ग्यात काग अंत मंडडात आये आलम की सैन जान घनौ पकवान।
तहां पंचम प्रचंड महाराज सुभसाहनंद आजम की बान लसै रावरी भुजान।।''
उपर्युक्त रसों के अतिरिक्त, करुण, हास्य आदि का दलपति राय रायसे में पूर्णतः अभाव है।

 

करहिया कौ रायसौ(Karahiya kau Raysao)

गुलाब कवि की यह कृति रस परिपाक की दृष्टि से समृद्ध नहीं है। इसमें थोड़े से रसो का चित्रण किया गय है। वीर एवं वीभतस के अतिरिक्त अन्य रसों के दर्शन नहीं होते।

वीर रस(Veer Ras)

वीर रस के अनेक उदाहरण इस ग्रन्थ में मिल जाते है। एक छन्द में तो वीर रस के तीन भेदों का एकत्र वर्णन किया गया है। छन्द निम्न प्रकार है-

"दान तेग सूरे बल विक्रम से रुरे पुण्य,
पूरे पुरुषारथ को सुकृति उदार है।
गावे कविराज यश पावे मन भायो तहां, 
वर्ण धर्म चारु सुन्दर सुढ़ार है।।
राजत करहिया में नीत के सदन सदा,
पोषक-प्रजा के प्रभुताई हुसयार है।
जंग अरबीले दल भंजन अरिन्दन के,
बिदित जहान जगउदित परमार है।।''

वीर रस का एक दूसरा उदाहरण नीचे दिया जा रहा है, जिसमें कवि ने अपने आश्रयदाता का सुयश वर्णन अतयन्त ओजपूर्ण शब्दों में किया है-

"मेड़ राखी हिन्द की उमड़ि दल जाटन के,
एडिकर कीनो छित सुयश सपूती कौ।
प्रबल पमारौ यारै धरा राखी धरीज सौ,
कीनौ ध्घमसान खग्गमग्ग मजबूती को।।
राख्यौ नाम निपुन नरिन्दन के मेरिन कौ,
कहत गुलाब त्याग आलस कपूती कौ।
सत्य राख्यौ शर्म राख्यौ साहिबी सयान राख्यौ,

निम्नलिखित एक ओर छन्द में युद्ध में जाट सरदार जवाहरसिंह एवं पंचमसिंह के मध्य हुए युद्ध में वीर रस की झांकी देखिये-

"गज छोड़के अश्व सवार भयौ। ललकार जवाहिर आय गयौ।
विरच्यौ इत केहरि सिद्ध नरम। कर इष्ट उचारन शुद्धत मरम।।
पहुंच्यौ रन पंचमसिंह मरद्द। करै झुकझार अरीन गरद्द।
रुप्यौ इतजाट निराट बली, मुखते रटना सुचितान भली।।''

वीभत्स(Veebhats) :

इस रस के भी कुछ उदाहरण करहिया कौ रायसौ में उपलब्ध हो जाते हैं।
निम्नांकित छन्दों की पंक्तियां उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत की जा रही है-

"कटि मूंडनि शूनन श्रोन मचे, तहां बेगि सदाशिव माल सचै।
कर जुग्गिन चौसठ नच्यपगम्, चुनि मुंड मालनि हेत।।
तहां हुलस काली आय, पल चरन मंगल गाय।
कर स्रोन पान नवीन, बहु भांत आशिख दीन।।''
वीभत्स में परम्परागत प्रतीकों को ही चुना गया है।

इस प्रकार करहिया कौ रायसौ में रस चित्रण की न्यूनता है। इसका कारण ग्रन्थ का लघु आकार एवं केवल वीर रस का ही प्रमुखता देना हो सकता है।


शत्रुजीत रासो (shatrujeet Raso)-

शत्रुजीत रासो में प्रमुख रुप से वीर रस का चित्रण किया गया है। रौद्र, भयानक और वीभतस का भी युद्ध की घटनाओं में यथा स्थान वर्णन किया गया है। पूर्ण रुपेण वीर काव्य होने की दृष्टि से शत्रुजीत रासों में शृंगार को स्थान नहीं मिल सका। सेना, राजा, सरदारों आदि की सज्जा का कहीं कहीं शृंगार पूर्ण वर्णन अवश्य पाया जाताहै। परन्तु इस सब से शृंगार रस की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।

वीर रस -
वीर रस के अंतर्गत युद्धवीर का ही सर्वत्र चित्रण पाया जाता है। एक स्थल पर राजा के द्वारा दान देने का भी वर्णन किया गया है-

युद्धवीर (Yuddhveer) -

"विहंस वदन नरनहि सहज बुल्लव वर बानिय।
वीर अंग अनभंग जंग रंगहि सरसानिय।।
मैं अगवहुं दल भार सार धारहिं झकझोरहुं।
कटक काटकर वार सिंधु सरिता महं वोरहुं।।
मम बांह छांह छितपाल तुम सहित सेन निरसंक रहि।
इम प्रबल परीछत छत्रपत सत्रजीत सुत अत्र गहि।।''

दानवीर(Danveer)

"अस्नान कर गोदान दीनै सुध्ध विप्र बुलाइ कै।
वर वाउ पांउ पषार वसंचहु देह सब सुख पाइ के।।''

शृंगार रस (Srangar Ras)

शत्रुजीत रासौ में कवि ने कुछ गीतिका छन्दों में युद्धक्षेत्र में स्थित महाराज शत्रुजीत सिंह की सजावट शृंगार वर्णन किया है-
उदाहरण - 

" सजसीस पाग सुपेत कस सिर पैज जर्व जवाहिरौ।
कलगी जराऊ जगमरगे सब रंग सोभाडार हो।।
गोट हीरा जटित बंधव तुरत तोरा तोर कौ।
मन मुक्त माल विसाल तुर्रा मौर सुभ सिर मौर कौ।।''

भयानक(Bhayanak) :

निम्नलिखित एक छप्पय में शिव के भयानक रुप का चित्रण किया गया है-

"टर समाधि तिहि वार हरष कन्हरगढ़ दिष्षव। 
सत्रजीत रन काज चढ़व हयराज विसिष्षव।।
गवरडार अरधंग गंग उतमंग उतारिय।
इंचि भुजन भुजंग चंद खिंयचय त्रिपुरारिय।
गरमाल गरल त्यागउ तुरत धौर धवल चढ़पथ लियव।
उठ चुंग तुंग चंपिय धरन गरद गुंग गगनहिं गयव।।''

वीभत्स(Veebhats) :

शत्रुजीत रासों में अनेक किरवांन छन्दों में वीभत्स वर्णन पाये जाते हैं। निम्नलिखित छन्द में युद्ध के क्षेत्र में बहती हुई नदी, बालों की लटों सहित तैरते कटे हुए मुंड, योगिनियों आदि का चित्रण किया गया है-

"जहाँ मोटी जांघ षारन मझाई मोद मोटी भई।
रुधिर अहौटी तज दीनै पात पान।।
जहां लट की रपट उठी ठठ की चुचात चोटी।
फिरै बांह जोटी जुर जुग्गिन सुजांन ।।'' आदि।

रौद्र रस(Raudra Ras)

महाराज शत्रुजीत और सिंधिया की सेना के सेनानायक पौरु के सम्मुख युद्ध में रौद्र रस का परिपाक निम्न प्रकार है-

"कर गाहि काल कराल, हनिय आयै कर दिन्निव।
सत्रजीत पर आइ समुख पीरु रन किन्निव।।
पांव रोप कर कीय हुमक हुंकार घाल दिय।
पंचम प्रबल प्रचण्ड सांग अरि अंगह बाहकिय।।""

श्रीधर ने पारीछत रायसे में न्यूनाधिक रुप में सभी रासों का चित्रण किया है, परन्तु प्रधानता वीर रस की ही है। वीर के अतिरिक्त शृंगार का प्रयोग केवल सेना, घोड़े आदि की सजावट के लिए किया गया है। रौद्र, भयानक वीभतस तथा भक्ति आदि रसों का भी यथा स्थान चित्रण मिलता है। करुण हास्य, वात्सलय रसों का पूर्णतः अभाव है। आगे प्रत्येक रस के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं-

वीर रस (Veer Ras)  

रासो में प्रमुख रुप से युद्ध वीर का ही रुप प्रस्तुत किया गया है। दानवीर का चित्रण अतयल्प मात्रा में है। निम्नलिखित एक दोह छन्द में महाराजा पारीछत की वीरत्व व्यंजक मुद्रा का चित्रण देखिए-

"सुनत खबर मन क्रुद्ध कर फरक उठे भुज दण्ड
महाबीर बुन्देलवर, सारधार बलबंड।।''

एक अन्य उदाहरण में चरों के द्वारा तरीचर ग्राम के जलाए जाने का समाचार तथा विपक्षियों के द्वारा दतिया नरेश के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की खबर पाकर, कन्हरगढ़ वर्तमान सेंवढ़ा में स्थित दीमान अमानसिंह की आँखों में रोष झलकने लगता है और भुजायें फड़क उठती हैं। छन्द

इस प्रकार है-

""चरण सुनाई धरा जारी है तरीचर की,
गन्ध्रप पमार कछु भरे अभिमान के।
सकल गड़ोई सूर सामिल भए हैं आइ,
माडें जंग पंचम सौं करत बखान के।।
सुनकै खबर वीर बलकन लागौ अंग, 
स्वांमपन सदांहूं रखैया है प्रमान के।
पंचम प्रचण्ड रोस झलकन लागौ नैन,
फरकन लागे भुजदण्ड ये अमान के।।''

महाराज पारीछत चतुरंगिणी सेना सजाकर युद्ध के लिए तैयार हुए, तो उनकी विशाल सेना के कारण पृथ्वी काँपने लगी, पर्वत डोलने लगे, दिग्गज चिघाड़ने लगे और आतंक का शोर लंका तक हो गया। निम्नांकित छन्द में वीर रस का यह उदाहरण देखिए-

""साज चतुरंग जंग रंग को परीछत जु,
दछ्छिन भुजान ओर हेरे द्रग कोर हैं।
कपंत धरन डगमगत हैं, हमसान, 
दिग्गज चिकारें भौ अतंक लंक सोर है।।
सबल भुआल तें निबल बाला बाल संग, 
पाये बाल बनन भगानै जात भोर है।।
खलन के खौम जौंम छीकै परत पाइ
अचल चलाइमान होत वरजोर है।''

शृंगार रस(Srangar Ras)

निम्नांकित छन्द में महाराज पार्रीदत के घोड़ों का सौन्दयर्पूर्ण चित्रण किया गया है-

""चपल चलाकी चंचला की गति छीन लेत, 
दहर छलंगत छिकारे होत लाज के।
पुरयन पात के गातन समैट पफरै,
धाय दिये जात है समान पछ्छराज के।।
लोट पोट नैन कुलटान के लजावत हैं, 
जरकस जीनन जराउ धरैं साज कैं।
अंगन उमंग गिर वरन उलंघन है,
छैकन कुरंगन कुरंग महाराज कै।''

वीभत्स(Veebhats) :

युद्ध क्षेत्र में भयंकर मारकाट के समय योगिनी, कालिका, काक, गिद्ध, श्रोणित की कीच, रुण्ड-मुण्ड, आंतो के जाल , भूत-प्रेत, पिशाच आदि का जुगुप्सा उत्पन्न करने वाला वर्णन इसके अन्तर्गत आता है। पारीछत रायसे में ऐसे चित्र एकाधिक स्थलों पर उपस्थित हुए हैं। एक छन्द इस प्रकार है-

""नदीस नन्द सज्ज कै चले जमात गज्ज कै।
##ुरिैं सुजुग्गिनी जहाँ प्रमोद कालिका तहाँ।
सुचिलल गिध्ध स्यारयं करैं तहाँ अहारयं।
लये सुईस मुंडियं, डरे सुरुण्ड हड्डियं।।
मचौ सुश्रोन कीचियं , सुकालिका असीसयं।
विमान व्योम छाइयं, सुमान नाद खाइयं।।''

रौद्र रस (Raudra Ras)

रोद्र रस युद्ध क्षेत्र में सरदारों और वीरों की दर्पोक्तियों में व्यक्त होता है। निम्नांकित छन्द में "सिकदार' की उक्ति में रौद्र का स्वरुप देखा जा सकता है।

""करी अरज सिकदार, सुनहु पंचम दिमान अबि।
सुभट सूर सामन्ट देहु मम सैन संग सबि।।
पकर लैउं गंधपं जाइ बाघाइट जारहुं।
सकल गड़ोइन दण्ड धरा सबकी सु उजारहुं।।
आन फेर नरनाथ की करहुं शत्र सब काल बस।
महाराज हुकुम आपुन हुकुम कर दीजै मंडौं सुजस।।''

भयानक (Bhayanak) :

पारीछत रायसे में भयानक रस के भी कुछ उदाहरण उपलब्ध हो जाते हैं। दिमान अमान सिंह की सेना के आतंक से 
दसों दिशाओं में भय व्याप्त हो गया है। निम्नांकित छन्द में चित्रण इस प्रकार है-

""कंपत धरन चल दलन के पातन लौं,
चंपत फनाली फन होत पसेमान है।
कूरम कराहैं कोल डाढ़ भार डौर देत, दिग्गज चिकारै करैं दस हूँ दिसान है।।
धूर पूर अम्बर पहारन की चूर होत, 
सूरज की जोत लगै चन्द के समान हैं।
कासी सुर पंचम अमान स्वांम कारज कौं,
साज दल चलौ वीर प्रबल दिमान है।।''

भक्ति रस (Veer Ras )

पारीछत रायसा में "ब्रह्म बाला जी' की भक्तिपूर्ण स्तुति में भक्ति रस की सृष्टि हुई है। उदाहरण निम्न प्रकार है-

""तुही आदि ब्रह्म निराकार जोतं।
तुही तैं सबै वि उत्पन्न होतं।।
तुही विस्न ब्रह्मा तुहीं रुद्र जानौ।
तुही तैं प्रगट सर्व औतार मानौ।।''

"बाघाअ रायसा' में प्रधान आनन्द सिंह कुड़रा ने रस परिपाक के सम्बन्ध में पूर्ण दिखलाई है। इस रायसे में किसी भी रस की निष्पत्ति नहीं होन पाई। वीर रस का काव्य होते हुए भी सम्पूर्ण रासो ग्रन्थ में वीर रास के उदाहरणों का प्रायः अभाव है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि इस रचना में घटनाओं का संयोजन कवि ने बड़ी शीघ्रता से किया है तथा वण्रन संक्षिप्तता के कारण भी कवि को रस आदि की सृष्टि का अवसर नहीं मिल पाया होगा। 

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बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय - लक्ष्मीबाई रासो प्रकृति चित्रण (Lakshmibai Raso Nature Illustration)

बुंदेलखंड : एक सांस्कृतिक परिचय 

लक्ष्मीबाई रासो प्रकृति चित्रण (Lakshmibai Raso Nature Illustration)

इस धारा के अन्य रासो ग्रन्थों की भाँति ही मदनेश कृत लक्ष्मीबाई रासो में भी प्रकृति का उद्दीपन एवं अप्रस्तुत स्वरुप ही परिलक्षित होता है। इस कवि का प्रमुख लक्ष्य युद्ध का वर्णन एवं उस युद्ध में अपने पक्ष के नायक का वीरोत्तेजक स्वरुप् वर्णन ही है अतः प्रकृति वर्णन में कोई रुचि नहीं दिखलाई गई है। ऐसे ग्रन्थों में प्रकृति वर्णन नगण्य सा ही है। वैसे युद्ध के वर्णनों में भी प्रकृति के आलंबन एवं उद्दीपन दोनों पक्षों का सुन्दर वर्णन किया जा सकता है, परन्तु इन कवियों ने इस ओर उदासीनता ही दिखलाई हे। लक्ष्मीबाई रासो में युद्ध क्षेत्र में प्रकृति के उद्दीपन स्वरुप् का एक निम्न उदाहरण इस प्रकार है-

"उत रिपुदल सेना उमड़ आइ। चहुं ओर मनो घन घटा छाइ।
बरछिन की माल चमंक रही। सोउ दामिन मनौ दमंक रही।।
जहं तहं तोपन को होत सोर। सोई मानों हो रई घटा घोर।।
गज खच्चर बाज चिकारत हैं। पिक कोकिल मोर अलापत हैं।।
उठ धुंआ गुंग नभ लेत गहे। मानों धुर चौगृद टूट रहे।।
सबकी बातन कौ मचौ सोर। है मनो पवन कौ जोर तो।''

उपर्युक्त छन्द में युद्ध क्षेत्र में उत्प्रेक्षा से पुष्ट रुपक अलंकार में प्रकृति का वर्णन है। शत्रु सेना का घन घटा, बरछियों की फक का बिजली की चमक, तोपों के चलने की आवाज को घन घटा की गर्ज, हाथी खच्चर घोड़ों आदि की ध्वनियों को कायेल और मोर के आलाप, धुंआ उठने का धुरवा टूटने, सब लोगों की बातों के शोर का पवन के प्रचंड वेग के रुप में वर्णन किया गया है। यहाँ पर हाथी, खच्चर, घोड़ों आदि की चिंघाड़, ढेंचृं व हिनहिनाहट की तुलना कवि ने मोर व कायेल की ध्वनि सेकी है जो असंगत ही है।

स्पष्ट है कि कवि ने प्रकृति वर्णन के प्रति या तो उदासीनता दिखलाई है अथवा स्थिति वैषम्य को एकत्रित भर किया है।

शैली एवं भाषा(Style and language) :

आलोच्य रासो काव्यों में शैलियों की विविधता है। कुछ कवियों ने ""वर्णनात्मक शैली'' अपनाई है तो कुछ ने ""संयुक्ताक्षर'' और ध्वन्यात्मक शैली में काव्य रचना की। अधिकांश कवि राज्याश्रित दरबारी मनोवृत्ति वाले थे, जो एक बंधी बंधाई परिपाटी को ही अपनाए रहे। ऐसे कवियों के द्वारा किये गये, वर्णनों में अस्वाभाविकता का समावेश हो गया है। ""नाम परिगणात्मक शैली'' के अन्तर्गत कवियों द्वारा वस्तुओं और नामों की लम्बी-लम्बी सूचियों का प्रयोग कर भाषा प्रवाह को शिथिल कर दिया गया है। बुन्देल खण्ड के रासो काव्यों की भाषा मूलरुप में बुन्देली ही है, पर कुछ रासो ग्रन्थों की भाषा अल्प मात्रात में ""बृज'' से प्रभावित भी है। "झाँसी को राइसौ', "पारीछत रायसा', "बाघाटा का रासो', "छछूंदर रायसा', "गाडर रायसा', "घूस रायसा' आदि विशुद्ध बुन्देली की रचनायें है।

इन कवियों ने प्रयुक्त काव्य भाषा के साथ उर्दू, अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों को तोड़मरोड़ कर स्थानीय बोली के अनुरुप प्रयुक्त किया है। कुछ कवियों ने शुद्ध तत्सम शब्दावली का प्रयोग भी किया है। "जोगीदास', "किशुनेश', "श्रीधर', "गुलाब' तथा "मदनेश' आदि की भाषा न्यूनाधिक रुप में संस्कृत शब्दावली से प्रभावित भी हैं। परन्तु बुन्देलखण्ड के रासो ग्रन्थों में बुन्देली बे#ोली के अत्यन्त स्वाभाविक और सरस प्रयोग देखने को मिलते हैं। आगे प्रत्येक रासो की भाषा और शैली का विवचेन प्रस्तुत किया जा रहा है।
दलपति राव रायसा में वर्णनात्मक शैली का प्रमुख रुप से प्रयोग किया गया है। पर जहाँ कवि ने युद्ध की विकरालता, वीरों के शोर्य प्रदर्शन एवं सेना प्रववाण आदि का ओज पूर्ण वर्णन किया है, वहाँ "नादात्मक शैली' का प्रयोग किया गया है। संयुक्ताक्षर शैली भी रासो परम्परा के अनकूल यत्र तत्र अपवनाई गई है। वर्णद्वित्व तथा अनुस्वारांत शब्दावली का कवि ने तड़क भड़क पूर्ण वर्णनों में प्रयोग किया है। अनुस्वारांत शब्द प्रयोग तो बुन्देली भाषा की अपनी विशेषता है।

बुन्देली रासो काव्यों में प्रमुख रुप से दलपति राव रायसा की भाषा एवं शैली पर पृथ्वीराज रासो की भाषा शैली का पर्यापत प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। डॉ. भगवानदास माहौर ने लिखा है कि ""पृथ्वीराज रासो की भाषा शैली का प्रभोव इन बुन्देली रासो ग्रन्थों तक चला आया है, यह स्पष्ट दिखता है। इनकी भाषा यद्यपि है बुन्देली ही तथापि पृथ्वीराज रारसो की तरह उसमें वर्ण द्वित्व, अपभ्रंशाभासतव, अनुस्वारांत पदावली आदि की प्रवृति मात्रा में परिलख्ज्ञित होती है।'' प्राचीन रासो परम्परा से प्रभावित दलपतिराय रायसा के निम्न छन्द देखिये-

""भयौ जलंग मांझ सुमारं आरं। बही श्रोन धारं सुनारं पनारं।
कर्रकंत ओपंन्न सारं अनेग। तर्रकुत जारं वष्षरं सुतेगं।।
करक्कत्त हाड़न्य सैषर्ग धारं। लरंतं सुघोरंन्न में अस्सवार।
फरंकंत घाइल्ल जै बौत चायं। सरक्कत्त हाथिन्न सों जै सुपायं।।
उपर्युक्त छन्द में वर्णद्वित्व अनुस्वारांत शब्दावली एवं अपभ्रंशभासात्व देखा जा सकता है।

निम्नलिखित छन्द में बुन्देली बोली का सामान्य रुप में सुन्दर प्रयोग है-

""नाहर से नाहर सजे, सजे संग जैवार।
सजै राउ दलपत संग, ओरै सूर अपार।।
दान क्रवानं प्रवान सौ, रहत सदा जै वीर।।
स्वांम धर्म के कारनै, अर्पेरहत शरीर।।''

इस प्रकार एक ओर तो दलपति राय रायसा में पृथ्वीराज रासो की परम्परा युक्त भाषा शैली का प्रयोग हुआ है तो दूसरी ओर बुन्देली बोली का स्वाभाविक स्वरुप भी देखने को मिल जाता है।

""करहिया कौ रायसौ'' प्रमुखतः वर्णनात्मक शैली में लिखा गया है। वीरों के नाम, राजपूत जातियों के नाम आदि के गिनाने में नाम परिगणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं चारण परम्परा की भाँति संयुक्ताक्षर एवं वर्णदित्व शैली का बढंगा सा प्रयोग भाषा प्रवाह में अरोचकता एवं कथाप्रवाह में व्यवधान सा उपस्थित कर देता है। निम्नांकित पंक्तियों में सुयुक्ताक्षर शैली का प्रयोग दृष्टव्य है-

"झुंडड्डुकिंरग प्रचंडड्डिढ करि मुंडड्डरिपिय।
भुस्सुंड्डिढ करि तुंड्डडुभ कि चमुंड्डडुगरिय।।
र्रूंडद्धरि अकिंरद ड्डुरिय अरंभम्भुज पर।
रंभग्ग्न किय मग्गग्गति चल कद्दद्दसिवर।।'

उपर्युक्त उदाहरण मेंकवि ने वर्णों का केसा अस्वाभाविक मूल उपस्थित किया है कि अर्थ का अभाव तो हो ही गया, कथा प्रवाह एवं भाषा प्रवाह में भी शिथिलता एवं अरोचकता आ गई है। किन्तु गुलाब कवि ने इस प्रकार के वर्णन बहुत कम किये हैं। कवि ने बार-बार छन्दों का परिवर्तन किया है इस कारण रचना में रोचकता की वृद्धि हुई है।

"करहिया कौ रायसौ' यद्यपि बुन्देली भाषा में लिखा गया है, तथापि यत्र तत्र कुछ वर्णनों से यह कहा जा सकता है कि कवि पर बृज का पर्याप्त प्रभाव था१ कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृ की जा रही हैं-

१. देवीजू के चरन सरोज उद ल्याउ रे।
२. देवनि के देव श्री गणेंश जू की गावही।
३. जंग जोर जालिम जबर प्रगट करहिया बार।

उपर्युक्त पंक्तियों में कुछ बुन्देली शब्द यथा स्थान मणि की तरह जड़ हुए हैं। इस तरह की और भी पंक्तियां इस काव्य ग्रन्थ में उपलब्ध हेाती है। सम्पूर्ण रुप में यह काव्य ग्रन्थ बुन्देली भाषा के खाते में ही जमा किया जायेगा।

शत्रुजीत रासो में भी परम्परा युक्त शैलियों का ही प्रयोग किया गया है। इस रासो गन्थ में वर्णनात्मक, ध्वन्यात्मक, संयुक्ताक्षर आदि शैलियों का प्रयोग हुआ है। वीरों के नामों और उनकी जातियों तथा हथियारों आदि की सूची गिनाने में पगिणातमक शैली भी प्रयुक्त हुई है। बँधी बँधाई परम्परा में अटका न रह गया होता तो इस ग्रन्थ का कवि अपने समय का एक विद्वान काव्य मर्मज्ञ था।

शत्रुजीत रासो में बुन्देली भाषा को अपनाया गया है। कवि को भाषा प्रयोग में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है। बुन्देली की शब्दावली का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। जैस -जड़ाकौ करे', "डगे पांव', "मरोरै' के साथ उर्दू आदि भाषाओं के शबदों को भी कवि ने बुन्देली संस्करण के रुप में प्रयुक्त किया है। जैसे "तफसील' "होश्यार' का हुसयार आदि। यथा स्थान कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग ने भाषा की शक्ति को परिवर्धित किया है-

१. "सहज सजीलौ सिंह तौ तिहि पर पख्खर जोर'।
२. "करी मीचनें कीचकी घीच नीची,ह्मदै पैठकें बुध्ध की आंख मींची'।
३. "काल पूंछै मरोरै'।
४. "डगे पांव'।
५. "मनहिं कचाइकै'।

बुन्देली रासो काव्यों की भाषा प्राचीन रासो काव्यों की भाषा से प्रभावित है। यद्यपि पारीछत रायसा की भाषा विशुद्ध बुन्देली है तथापि कहीं-कहीं तड़क भड़क वाली, चमत्कार उपस्थित करने वाली शब्दावली का प्रयोग भी किया गया है। वर्णद्वित्व, अपभ्रंशाभासत्व संयुक्ताक्षर शेली एवंअनुस्वारांत पदावली का प्रयोग प्रचुरता के साथ किया गया है।

शब्दांत "इ' तथा "उ' को "अ' में परिवर्तित कर देना इस भाषा की अपनी विशेषता है। महाप्राण ध्वनियों में "ध', "ख' आदि को अल्पप्राण "द' , "क' आदि कर दिया जाता हैं। शब्दांत व्यंजन "ह' के बाद स्वर होने पर व्यंजन "ह' का लोप हो जाता है। जैसे "रहे' का "रए'। "रहौ' का "रऔ' आदि।

निम्नांकित उदाहरण में अनुस्वारान्त शब्दावली का स्वरुप देखा जा सकता है-

"६सज्जे पमारं सैगुआवारं अनी अन्यारं वीर वली।
सज्जे पड़हारं सूर जुझार धरभुजभारं रन अदली।। आदि''
उपर्युक्त उदाहरण में पमारं,, वारं , अन्यारं, पड़हारं, जुझारं तथा भारं अनुस्वारान्त शब्द हैं।

एक अन्य उदाहरण में वर्णद्वित्व युक्त शब्दावली का प्रयोग इस प्रकार है-

""करक्कहि डाढ़न भान कोल, सरक्करी सेसन बुल्हि बोल।
भरक्कह कूरम पंपिय भान, धरक्कहि दिग्गज सुष्षत जान।।''

ऐसी शब्दावली के प्रयोग से भाषा प्रवाह में बाधा उपस्थित हुई है।

"बाघाट रासौ' सीधी सादी वर्णनात्मक शैली में लिखा गया हैं। न तो कवि ने संयुक्ताक्षर शैली का प्रयोग कर भाषा को दुरुहता दीहै और न नादात्मक शैली के द्वारा शब्दाडम्बर ही उत्पन्न किया है। वस्तुओं और नामों की अस्वाभाविकता उत्पन्न करने वाली लम्बी-लम्बी सूचियाँ भी गिनाने के लिए कवि ने कहीं भी प्रयास नहीं किया है। अलंकारों आदि के द्वारा भाषा को चामत्कारिक भी नहींबनया गया। सूक्ष्म वर्णन के द्वारा धटनाओं को शीघ्रतापूर्वक जोड़कर कथानक को समाप्त कर दिया गया है।

"बुन्दली बोली कोमलता और मिठास के लिए प्रसिद्ध है। इसमें अधिकांश शब्द "ओकारान्त' तथा "औकारान्त' पाए जाते हैं। जैसे खड़ी बोली "का' का "कौ' रुप। बुन्देली में#ं अनुनासिकता पर भी अधिक बल दिया जाता है। हिन्दी में "म' व्यंजन स्वयं सानुनासिक है, पर बुन्देली प्रयोगों में "म' के ऊपर भी अनुस्वार लगाये जाने का प्रचलन है। जैसे-'दिमान' का दिमांन', "जगह' का "जांगा', "हनूमान' का हनूमांन', "अमान' का अमांन' आदि। 

बुन्देलखण्डी" कृ' को "क्र' रुप में लिखते हैं। "य' के स्थान पर "अ' तथा "व७ के स्थान पर "उ' का अधिकांश प्रयोग किया जाता है। जेसे "राउराजा' राव राजा, अली तरफ', राषिअ' आदि।

कवि ने विदेशी शब्दो को भीं तोड़-मरोड़ कर बुन्देलीकरण किया है। "हुक्म' का हुकुम', "जुर्रत का "जुरियत' आदि। कहीं-केहीं इन विदेशी शब्दों का स्वाभाविक रुप से "विभक्ति' का रुप दे दिया जाता है। जैसे "हुक्म को' का लघु रुप "हुकुमै', "दतिया७ का दतिअ' आदि बुन्देली बोली का "बन्धेज' शब्द प्रबन्ध, व्यवस्था या वन्दोवस्त का ही प्यारा मोहक रुप है।

यथास्थान मुहावरों और वक्रोक्तियों के प्रयोग से भाषा सरस, सशक्त और प्रांजल हो गई है। इस ग्रन्थ में बुन्देली गद्य का स्वरुप भी देखने को मिलता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भाषा की दृष्टि से अन्य बुन्देली रासो काव्यों की अपेक्षा "बाघाइट कौ रायसौ' अध्काक समृद्ध है।
प्रधान कल्याणिंसह कूड़रा कृत "झाँसी कौ राइसो' बुन्देली बोली में लिखा गया है। बुन्देली स्वाभाविकता, सरसता, सरलता आदि गुणों से सम्पन्न तो है ही। कवि का भाषा पर असाधारण अधिकार दृष्टिगोचर होता है। घटनावली के संयोजन में कवि को पूर्ण सफलता मिली है। कहीं भी अनावश्यक शब्दों की तोड़-मरोड़ अथवा अनुचित प्रयोग नहीं किया गया है। उर्दू अंग्रेजी के व्यावहारिक शब्दों का बुन्देली रुप भी अपनी एक अलग विशेषता प्रदर्शित करता है। जैसे बख्शी का बगसी, फतह का मतै, हिस्सा का हिसा , सिपाही का सिपाई, जुल्म का जुलम, कौर्निश का कुन्नस, दोस्त का दोस, कोतवाल का कुतवाल, कचहरी का कचैरी, आदि उर्दू भाषा के शब्दों का बुनदेली संस्करण देखा जा सकता है। अंग्रेजी भाषा के व्यावहारिक शब्दजनरल का जर्नेल, एजेंन्ट का अर्जन्ट, राइफल का रफल्ल आदि इसी प्रकार के शब्द है। इसी प्रकार झाँसी कौ रासइसौ में कवि ने हिन्दी की बुन्देली बोली के साथ-साथ उर्दू व अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है।चमत्कार की सृष्टि करने वाले द्वित्व वर्ण युक्त शब्दों का प्रयोग न होने से भाषा के स्वाभाविक प्रवाह एवं अर्थ बोध में कहीं भी शिथिलता नहीं आने पायी है। कुछ वीर रस के वर्णनों में ओज उत्पन्न करने के लिए अवश्य अवर्ग युक्त शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

ऐतिहासिक घटना प्रधान होने के कारण "झाँसी कौ राइसौ" में प्रमुख रुप से वर्णनात्मक शैली को अपनाया गया है। नामों और वसतुओं की लम्बी-लम्बी सूचियों का अभाव होने के कारण वर्णन अरुचिकर और नीरस होने से बच गए हैं। कवि ने सुयुक्ताक्षर शैली का भी प्रयोग नहीं किया है। छन्दों का शीघ्रतापूर्वक परिवर्तन होने से शैली में रोचकता आ गई है। युद्ध वर्णन एवं वीर रस के वर्णन में नादात्मकता अवश्य उत्पन्न हुई है। रायसे की कथा सूत्रता में नत्त्थे खाँ के साथ हुए युद्ध के पश्चात् कुछ शिथिलता आ गई लगती हैं। सम्भवतः उतना अंश पीछे से कवि ने कई टुकड़ों में लिखा हो। फिर भी यह स्पष्ट है कि कल्याणसिंह को भाषा एवं शैली की दृष्टि से पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है।
पं. "मदनेश' ने अपने रासो ग्रन्थ में अपने समय तक प्रचति परम्परायुक्त काव्य शेलियों का ही प्रयोग किया है। ऐतिहासिक इतिवृत्तात्मक कथानक को प्रमुख रुप से वर्णनात्मक शैली में व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं संवाद योजना भी की गई है। कुछ भागों में छन्दों में बारबार परिवर्तन करके शैली को रुचिर बनाने की चेष्टा की गई है।

संयुक्ताक्षर एवं नादात्मक शैली का कवि ने रासो ग्रन्थ के अष्टम भाग में अधिक प्रयोग किया है। इस शैली में टकार एवं डकार युक्त शब्दोंका अधिक प्रयोग हुआ है। इस धारा के अनेक कवियों ने वस्तुओं की लम्बी-लम्बी सूचियाँ गिनवाइर् हैं। "मनदेश' जी भी वस्तुओं की नाम सूची गिनवाने का लोभ संवरण नहीं कर सके। इन्होंने भी कई स्थानों पर आभूषणों, हथियारों एवं सरदारों तथा जातियों की नाम सूची का वर्णन किया है। एक दो स्थलों पर इन सूचियों ने काव्य में अस्वाभाविकता भी उपस्थित की है। शकुन एवं अपशकुन विचार का कवि ने कई स्थलों परविस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकार के वर्णन भी काव्रू शैली को बोझिल बअनाने वाले हैं। मदनेश जी ने पृथ्वीराज रासो की छन्द शैली एवं रामचरित मानस का दोहा चौपाई का अनुसरण किया है तथा भाग चार एवं पाँ में आल्हा छन्द का प्रयोग कर आल्हा रायसा की शैली भी अपनाई है।

लक्ष्मीबाई रासो में शुद्ध बुन्देली बोली का प्रयोग किया गया है। यद्यपि इसके पूर्व के अनेक बुन्देली काव्य ग्रन्थ बृज भाषा काव्यों की कोटि में माने जाते रहे हैं तथापि यह अपने आपमें एक ऐसा गौरव ग्रन्थ है जिसमें विशुद्ध बुन्देली का अपनाया गया है। कवि ने न तो निरर्थक शब्दों के घआटोप की ही सृष्टि की है ओर न नावश्यक रुप से शब्दों को तोड़-मरोड़ कर ही रखा है। सरल शब्दावली के साथ-साथ सुसंस्कृत शब्द भी प्रया#ुक्त हुए हैं। बुन्देली के साथ उर्दू, फारसी आदि के शबदों को भी प्रसंगानुकूल स्थान दिया गया है। युग प्रभावेण कवि खड़ी बोली की चपेट में आ गया है। यथा "मुलक मैदान को पिदान फारडारा है।' का "फार डारा' शब्द खड़ी बोली "फाड़ डाला' का ही बुन्देली रुप है।

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