बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - दिवारी न्रत्य (Diwari Dance)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

दिवारी (Divaree / Diwari Dance)

दीपावली एक राष्ट्रीय महापर्व है, जिसे पूरा देश उल्लास और उत्साह से मनाता है। अतएव उसके संबंध में लोकप्रचलित मान्यताएँ और रीतियाँ स्थिर-सी हो गयी हैं। लेकिन स्थान-भेद और काल-भेद से उसमें अनेक परिवर्तन सहज-स्वाभाविक हैं। लोक के बदलाव से उसके स्वरूप में भिन्नता आती ही है। फिर दीपावली के प्रति लोकमन और लोकभाव हमेशा एक-सा नहीं रहता। दलिद्दर (अलक्ष्मी) को घर से बाहर निकालने के लिए स्त्रियाँ सूप और होंड़ी बजाती थीं, पर अब यह रीति समाप्त हो गयी है। पहले पुरुष अज्ञान और अंधवि·ाासों के अंधेरों को खदेड़ने के लिए दीपों के अग्निबाण बरसाते थे, लेकिन अब तो दीपों के प्रकाश बाहर ज्यादा चमकते हैं और अंधेरे भीतर बैठे रहते हैं। पहले अंधेरों को भगाने के लिए स्त्रियाँ या पुरुष समूह में एकत्रित होकर प्रयास करते थे, अब इस तरह की सामूहिकता  एकता का कोई प्रश्न ही नहीं है।

बुंदेलखंड की दिवारी की प्रकृति कुछ अलग ही है। युद्धों और संघर्षों से भरे इतिहास और वीरता की परम्परा के कारण दिवारी भी निराले तेज और ओज की प्रतीक बन गयी है। विशेषता तो यह है कि पुरानी जूझ की मुद्रा आज तक ताजी रही है। दिवारी गायकी एवं ओजमय दिवारी नृत्य। इस अंचल के लोकमन ने 'दिवारी' को इतना आत्मसात् कर लिया है कि उसके लिए दिवारी आलेखन है, गायकी है, नृत्य है और जिंदगी का एक खेल है।

उत्सवों का उत्सव

इस लोकोत्सव में तीन अन्य उत्सव सम्मिलित होकर महोत्सव का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। कार्तिक माह के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस से दीपावली का प्रारंभ हो जाता है। इस दिन सोना-चाँदी और नये बर्तन क्रय किये जाते हैं। संध्याकाल यम देवता को दीपदान किया जाता है और रात्रि में खरीदे गये पात्रों में धन (सोना-चाँदी, सिक्के, आभूषण, रत्नादि) रखकर उनकी पूजा की जाती है। यह सब भोतिकता की पूजा का प्रतीक है। दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहा जाता है। नरक शब्द के जुड़ने से वह स्वच्छता का प्रतीक बन गया है, क्योंकि उस दिन घर के कूड़ा-कर्कट और गंदगी का नरक साफ किया जाता है। देह की स्वच्छता के लिए स्नान किया जाता है और अज्जाझारौ एवं करई तुमरिया से उतार कर बाहर डाल दिया जाता है। टोटका का यह रूप संभव है या फिर वनस्पतियों के जल से स्नान का प्रावधान रहा होगा, जो अब टोटका के रूप में अवशिष्ट है। एक उक्ति लोकप्रचलित है-'अज्जाझारौ करई तुरिया, रोग-दोग लै जाय दिवरिया।'

दीपावली के बाद कार्तिक-शुक्ल प्रतिपदा को गोवद्र्धन-पूजा या अन्नकूट का उत्सव होता है। अन्नकूट उत्सव पुराना है, क्योंकि वह इन्द्रदेव के नैवेद्य के रूप में होता था। बुंदेलखंड में इन्द्र की पूजा महाभारत-काल में प्रचलित थी, जिसका प्रमाण महाभारत के आदि पर्व के छंद 17 से 27 तक के 11 छंदों में मिलता है। लेकिन कृष्म ने इन्द्र के स्थान पर गोवद्र्धन गिरि की पूजा शुरू कर दी थी। तभी से गोवद्र्धन गिरि की पूजा के लिए छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। अन्न का ढेर लगने से उसे अन्नकूट कहा जाता है। गोवद्र्धन को बुंदेलखंड में गोधन भी कहते हैं और गाय-बैल की पूजा भी करते हैं। कार्तिक-शुक्ल द्वितीया को भइयादोज में बहन, भाई की सुरक्षा और कल्याण के लिए त रखती है और भाई को तिलक लगाकर कवच-सा खड़ा करती है, जबकि भाई बहिन के रूप में नारी का सम्मान करता है। भइयादोज का तिलक एक तरफ प्रेम का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ पुरुष या स्त्री की काम-विजय का। इस प्रकार दिवारी में पाँच उत्सवों का सम्मिलन है। धनतेरस और नरक चौदस में भौतिक से दैहिक स्व् ाच्छता, दीपावली में मानसिक, बौद्धिक और हार्दिक समरसता तथा गोवद्र्धन और भइयादोज में प्रकृति और काम पर विजय की अर्थवत्ता निहित है। दूसरे शब्दों में, दिवारी महोत्सव मनुष्य की वाह्र और आंतरिक स्वच्छता एवं प्रगति का रेखाचित्र है।

लोकदेवी सुराती

वैष्णवों, तांत्रिकों, शैवों, जैनियों आदि की लक्ष्मी अलग-अलग हैं, पर लोकदेवी सुराती लोक की लक्ष्मी हैं और वे हर जाति, संप्रदाय में लिखी और पूजी जाती हैं। वस्तुतः सुराती बदुं ेल् ाखंड  की लोकदेव् ाी लक्ष्मी ह।ैं यह  अंचल शक्तिपूजक रहा है और यहाँ शक्तिपूजा की तीन धाराएँ रही हैं-1. सबसे पुरानी मातृका-पूजन की, जो फरका या हाथ से बुने पट पर हल्दी या सिंदूर से लिखी सप्त मातृकाओं के रूप में आज भी द्रष्टव्य हैं, 2. भूदेवी या श्रीदेवी की परम्परा है, जो यहाँ भूइयाँ या भियाँ रानी की पूजा के रूप में लोकप्रचलित है और उसमें चकिया (प्रस्तर की गोल चकिया पर श्री या भूदेवी का उत्कीर्ण
हा ेना अथवा श्री यन्त्र का अंकन) और चौंतरिया (मिट्टी का चतुभजर््ु ा रूप) पूजी जाती ह ै तथा 3. गौरा -पार्वती, दुगर्् ाा, लक्ष्मी आदि देवियों के विग्रहों की परम्परा है।

प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर सिद्ध है कि लक्ष्मी की सर्वाधिक लोकप्रतिष्ठा दशवीं शती में थी। खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर के उपासनागृह के द्वार में ऊपर सरदल पर ब्राहृा और शिव के बिच में लक्ष्मी की मूर्ति उत्कीर्ण है, जिससे स्पष्ट है कि त्रिदेव में विष्णु के स्थान पर लक्ष्मी को स्थान दिया गया है और लक्ष्मण मंदिर लक्ष्मी मंदिर रहा है। इससे इस अंचल में लक्ष्मी के विग्रह की मान्यता का पता तो चलता है, प् ार सुराती के लोकप्रचलन के प्रारंभ की खोज बहुत कठिन हे। इतना निश्चित है कि श्रीसूक्त में श्रीलक्ष्मी के लिए 'करीषिणी' का प्रयोग उसके लोकत्व का संके त करता है। 'करीषिणी' का आशय यह है कि लक्ष्मी गोबर या गोयों में वास करती है। यह भी संभव है कि गोबर गणेश की तरह गोबर लक्ष्मी भी रही हों। बहरहाल, सुराती का आलेखन दशवीं शती से बहुत पहले का है।

रात के मांगलिक काल में चूने या खड़िय ा से पुती पूजाघर की दीवाल पर गेरू से सुराती लिखी जाती है। कुछ लोग सुराता भी लिखते हैं। सुरत्राता (सं. सुरत्रातृ) से सुराता और सुरा त्रात्री से सुराती हो जाना सहज है। इसलिए सुराता का अर्थ विष्णु और सुराती का लक्ष्मी स्पष्ट है। कहीं-कहीं सुरेता और सुरातू भी प्रचलित हैं, जिन्हें लक्ष्मी और विष्णु का अथवा विष्णु और लक्ष्मी का पर्याय समझा जाता है। नारियाँ उनके नामकरण का सही रूप नहीं ब् ाता पातीं। इस लोकचित्र में ज्यामितिक प्रतीकों द्वारा सार्थक और जीवंत रेखांकन मिलता है।ऊ पर के दोनों सिरों म् ों सूरज-चंदा प्रकाश और जीवन की शा·ातता के, दोनों ओर के स्वस्तिक कल्याण के, बीच में सुराती -सुराता के चित्रों में मुख का चतुभुजर्् ा या वर्ग शुभ फलदायक देवमंडल का अथवा त्रिभुज शक्ति का तथा देहयष्टि के घरा या खाने समृद्धि के भंडा र के प्रतीक हैं। एक विद्वान् व्याख्याकार ने इन खानों को बंदीगृह माना है, जिसमें बलि द्वारा लक्ष्मी को बंदी बनाया गया था। यह मत सही नहीं है, क्योंकि बंदीगृह में बंद लक्ष्मी लोक द्वारा नहीं पूजी जाती। फिर, बंदीगृह में विष्णु (सुराता) का अंकन कती उचित नहीं है।

सुराती के इस चित्र में एक ओर डबुलियाँ और दूसरी ओर दिये अंकित होते हैं, जो धनधान्य और ज्ञान के प्रतीक हैं। नीचे पारम्परिक चौकों के साथ गोवद्र्धन (गोधन), चौपड़ (खेल), तुलसी (लक्ष्मी की अवतार) और कमल (लक्ष्मी का आसन) कई संदर्भों का संकेत करते हुए चित्र को पूर्णता प्रदान करते हैं। नाग -नागिन (मणिधारी) रत्नादि के, श्रवणकुमार सेवा के और सप्तकोण सप्तर्षि के प्रतीक कभी-कभी अंकित किये जाते हैं। कहीं-कहीं चित्र के चारों तरफ चौखटा खींच दिया जाता है, जिसके बीच-बीच में लहरिया (तरंगायित रेखाएँ) जीवन-प्रवाह को व्यंजित करती हैं तथा स्वस्तिक या गोला कल्याण और सृष्टि के बीज-ब्राहृ के प्रतीक हैं। 

 

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र