बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - फाग (Faag)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

फाग (Faag)

लोकोत्सब लोक का वह उत्सव है, जो लोक द्वारा लोकहित में आयोजित किया जाता है। सामूहिकता या सामूहिक भागीदारी उसकी पहली शर्त है। समूचा लोक एक विशिष्ट कर्म से गतिशील होकर अद्भुत एकता की बानगी पेश करता है और यह एकता केवल बाहर की नहीं है, वरन् भीतर की भी है। लोकोत्सव केवल उल्लास और आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं है, वरन् लोकसंस्कृति का अनूठा संस्थान भी है। उसका उद्भव और विकास लोकसंस्कृति के इतिहास का एक अंग है। एक छोटे से उत्सव से लेकर राष्ट्रीय लोकोत्सव तक की होली कीर यात्रा अपने-आप में एक महाकाव्य की कथा है।

प्राचीनता

बुंदलखेड में दीर्घकाल तक आदिम जातियों के उत्सव प्रचलित रहे। उस समय उत्सव किसी भी जाति की जातीयता की पहचान थे, इसीलिए आर्य उन्हें अन्यμाताः (अन्य μातवाले) कहा करते थे। 'बाल-नक्खत्त' और 'गढ़' उन्हीं के लोकोत्सव थे। 'बाल-नक्खत्त' मूर्ख-सम्मेलन जैसा उत्सव था। गाँव के कुछ लोग एक समूह में गोबर-लपेटे, कीचड़-सने और मुखरँगे वेश में गालियाँ बकते हुए घूमते थे और द्वार-द्वार जाकर इच्छित वस्तु वसूलते थे। 'गढ़' उत्सव में एक चिकना और तेल-पिलाया लम्बा-मोटा खम्भ मैदान के बीचों-बीच गाड़ दिया जाता है। उसके सिरे पर गुड़ की पोटली लटकायी जाती है, जिसे तोड़ने को युवक खम्भे पर चढ़ने का प्रयत्न करते हैं। उस समय खम्भे के चारों ओर सोंटियाँ और लाठियाँ लिए खड़ी युवतियाँ उसे रोकती हैं। उनसे बचकर जो पोटली छोड़कर ले आता है, वह विजयी माना जाता है। कहीं-कहीं युवक को खम्भे के सिरे पर गुड़ की पोटली बाँधनी पड़ती है, तभी वह विजयी समझा जाता है। यह उत्सव बुंदेलखंड में रंगपंचमी को आज भी होता है।

नाग-वाकाटक काल में 'मदनोत्सव' शुरू हुआ। कामसूत्र में उसे 'सुवसंतक' कहा गया है। मूल रूप में यह ऋतूत्सव था, जो वसंत ऋतू के आगमन पर होता था। उसमें 'काम' की पूजा को महत्त्व मिला और वह 'मदनोत्सव' हो गया। 'काम' की पूजा आम के बौर और टेसू के फूल से की जाती थी और स्त्री-पुरुष उल्लसित होकर गीत गाते एवं नृत्य करते थे। 'कामसूत्र' में 'होलाका' नाम के एक उत्सव का उल्लेख है, जिसमें टेसू के फूलों से बना रंग एक-दूसरे पर डालने की प्रथा थी। एक क्रीड़ा थी-उदकक्ष्वेड़िका अथवा शृंग-क्रीड़ा, जिसमें खोखले बाँस या सींग में पानी भरकर सिंहनाद के समान शब्द करने की क्रिया रहती थी।

पौराणिक काल में होली के लोकोत्सव की नयी विधि-व्यवस्था बनी थी। नारद पुराण में फागुन की पूर्णिमा को होलिका-पूजन निश्चित किया गया। उसके अनुसार सब तरफ सेइ कट्ठी की गयी लकड़ियों के ढेर में आग लगाकर उसकी परिक्रमा तीन बार करना चाहिए। इस हेतु के लिए एक कथा जोड़ दी गयी, जिसके अनुसार भक्त प्रह्लाद को भयभीत करने के लिए होलिका नाम की राक्षसी को जलाया गया था। होलिका जलने के कई अर्थ प्रस्तुत किये गये और इस प्रथा का अनुसरण होने लगा। नृत्य-गीत और हास्य-उल्लास तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति उसकी विशेष पहचान बने। अनेक प्रकार के रंग, अबीर, गुलाल प्रयुक्त करने की छूट दी गयी। इस तरह एक समन्वयकारी दृष्टि ने सबको होलिकोत्सव में ढाल दिया।

चन्देल वसन्तोत्सव और फाग का जन्म

चंदेलनरेश मदनवर्मन् के राज्यकाल (लगभग 1128-64ई.) में वसंतोत्सव का विवरण जिन मण्डन के 'कुमारपाल प्रबंध' में मिलता है। वसंत और आन्दोलक रागों के गीत, दिव्य श्रग्र से सजी स्त्रियाँ, आमोद -प्रमोद में मस्त आकर्षक युवक, कपूर, अगुरु, कस्तूरी, कुं कुम, चंदनादि से गंधित मार्ग, संगीत से ग् ाुंजित प्रत्येक भवन और देव-पूजन से निनादित प्रत्येक मंदिर। घर-घर में सदुं र पक्वान्न और भोजन के बाद ताम्बूल-सेवन। कपूर के चूर्ण से मानाया जाता धुलिपर्वोत्सव। यह है चंदेलकाल की उत्सवी चेतन् गुजरात-नरेश सिद्धराज के सुयोग्य मंत्री और शत्रु चंदेल की गतिविधि का पता लगानेवाले गुप्तचर की जबानी। साक्ष है चंदेलनरेश परमर्दिदेव के अमात्य वत्सराज द्वारा रचित 'हास्यचूड़ामणि' प्रहसन का वसंत-वर्णन। इतिहासकार अल्बेरूनी ने भी उत्सवों की सूची में वसंतोत्सव को प्राथमिकता दी है।
 

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र