बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास - कजरिया (Kajariya)

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास

कजरिया (Kajariya)

सन् 1182 ई. का सावन अपनी सारी रंगीनी और चहल-पहल के साथ उतरा था। उसे मालूम था कि चंदेलों की राजधानी महोबा में उसकी जितनी अगवानी होती है, उतनी और कहीं नहीं। इसीलिए कारी बदरिया, रिमझिम मेह, दमकन् बिजुरी, सजी-धजी हरयारी, रचनू मेंहदी, नचत-बोलत मोर-पपीरा और तीज-त्यौहार-सब अपने-अपने करतब दिखाने लगे थे। अलमस्त पहाड़ और अलगरजी ताल दुर्ग की तरफ आँखें गड़ाये खड़े थे। शायद सावन की दिखनौसी सौगातों की ललक से।
लेकिन अचानक इतनी बोझीली खामोशी क्यों ? हर आदमी चुप ! यहाँ तक कि दुर्ग की प्राचीरें चुपचाप खड़ी हुई। दिल्लीनरेश पृथ्वीराज चौहान ने महोबा का घेरा डाल दिया है, इसलिए ? उसने चन्द्रावलि, महाराज परमर्दिदेव की राजकुमारी का डोला माँगा है। कविराज जगनिक आल्हा-ऊदल को लुवाने कन्नौज गए थे, पर अभी तक नहीं लौटे। महारानी माल्हनदे ने पत की पगिया सैंपने भेजा है उन्हें।
"पाग तक राजमाता के चरणों में रखने दे दी है चन्द्रा, फिर भी आल्हा-ऊदल नहीं आएँगे ? तू क्यों रोती है ? " माल्हनदे चन्द्रावलि को समझा नही थी और राजकुमारी बिलख-बिलखकर रो रही थी-"कजरियों के दौने मुरझा चले हैं माँ, राखी उदास पड़ी है। दिन चला गया, रात भी खिसक रही है... कब तक देखोगी ऊदल को....? " और ब्राहृजित ने आकर रोष में कहा-"बहिन, क्यों हठ करती है ? इतना बड़ा मदन सागर पड़ा है, सोने की नादें दूधों से भरी हैं...इन्हीं में कजरियाँ खौंट लो...दुर्ग से उतरकर युद्ध लड़ना मौत को बुलाना है... " चन्द्रावलि गरज उठी-"भइया, मौत से डरते हो, तो बैठो चुपचाप...हम तो कजरियाँ कीर्ति सागर में ही खौंटेंगी...लड़ ले चौहान...चन्द्रावलि का डोला मौत का डोला है...मौत का...। "
और पौ फटते ही महोबा के दुर्ग से नौ सौ डोले उतरे। हर डोले में दो वीरांगनाएँ, तलवार और कटारी के साथ एक-एक विष की पुड़िया लिये हुए और कजरियों के लहलहाते दोनों की रखवाली में मौत से जूझने को तैयार। पीछे रेंगती चंदेली सेना। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल। चौहानों ने धावा बोल दिया। घमासान युद्ध।कीर्ति सरोवर की पार पर डोले छिके रहे। चंदेल सेना पीछे हटी और चन्द्रावलि का डोंला आगे बढ़ा। माल्हनदे ने इशारे से रोका। कठिन परीक्षा की घड़ी। चन्द्रावलि डोले से उतरी की जोगियों की एक सेना चौहानों पर टूट पड़ी। बाजी पलट गई।
ऊदल से मिलते-जुलते एक योद्धा जोगी ने चन्द्रावलि से कहा-"बहिना, खौंटो कजरियाँ... " डोलों से युवतियाँ उतर पड़ीं। लाल-लाल सारीं और चोलीं पहने इन्द्रवधूटीं-सी रेंगीं। ऊपर घहराते बादल और नीचे खनकती तलवारें। बीच-बीच में दहाड़ें और कराहों के डरावने स्वर। कैसा अजीब दृश्य। बड़ी-बड़ी अँखियों में कजरारी नजरों सेइ धर-उधर टोह-सी लेतीं और सिर पर रखी कजरियों को सम्हालतीं युवतियाँ कजरी गीत गा उठीं। सरोवर के किनारे-किनारे मिठास बगराती हुर्इं।
सबसे आगे थी चन्द्रावलि। उसने जल में दोना रखा कि पृथ्वीराज चौहान ने आकर भाले की नोक से उसे उठाना चाहा, पर उस जोगी की झपटती तलवार ने उसे दो टुकड़े कर दिया। दोनों लड़ते-लड़ते दूर चले गए। आखिर चौहान हार गए और कजरियाँ खोंटकर चन्द्रावलि ने जोगी बनेऊ दल की पाग में खोंस दीं। राजमार्ग के दोनों तरफ योद्धा खड़े थे, बीच में कजरियाँ देती जा रही थी युवतियाँ और यथोचित प्रेम एवं सम्मान अर्पण कर रहे थे पति, भाई, देवर और जेठ।

यह थी बारहवीं शती की एक ऐतिहासिक घटना, जिसने कजरियों के उत्सव को एक नया मान दिया है और लोकगीतों में आमूल परिवर्तन किया है। पहले कजरियाँ फसल और समृद्धि से जुड़ी थीं, पर इस प्र् ासंग से संबद्ध होकर भाई-बहिन के प्रेम की प्रतीक बन गर्इं। यहाँ तक कि प्रेम और सद्भाव इतना आम हो गया कि अब कजरियाँ स भी के भाईचारे का संदेश सब जगह ले जाती हैं और होली के रंग तथा दशहरे के पान की तरह भारतीय संस्कृति की विरासत बन गई हैं।
 

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Courtesy: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र