(Article) ..पर लक्ष्मीबाई की पहचान से दूर है झांसी [.Jhansi Jagran ]

झांसी। रानी लक्ष्मीबाई और झांसी एक-दूसरे के पर्याय है, क्योंकि एक के बिना दूसरा अधूरा है। लेकिन जंग-ए-आजादी में अपनी जान न्यौछावर कर देने वाली झांसी की रानी की अंतिम पहचान तलवार, राजदंड और ध्वज अब भी झांसी से दूर है। रानी की इन निशानियों को झांसी लाने की चर्चाएं तो बहुत हुई, मगर बात कोशिशों की हद को अब तक पार नहीं कर पाई है।

आजादी की पहली लड़ाई की नायिका रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए 18 जून 1857 को ग्वालियर में वीरगति को प्राप्त हुई थी। देश को आजाद हुए छह दशक गुजर चुके है मगर रानी से जुड़ी सामग्री अब तक झांसी नहीं आ पाई है। कहने के लिए तो झांसी में रानी का किला है, महल है और वह गणेश मंदिर भी है जहां रानी परिणय सूत्र में बंधी थी। परंतु रानी ने जिस तलवार से अंग्रेजों का मुकाबला किया था वह झांसी में नहीं है।

राजकीय संग्रहालय के निदेशक एके पांडे बताते है कि रानी की तलवार और बख्तरबंद ग्वालियर में है। इसे झांसी लाने के कई बार प्रयास हुए परंतु सफलता नहीं मिल पाई है। पांडे के अनुसार ये सारी चीजें सरकार के फैसलों से जुड़ी हुई हैं। कभी सेना में मेजर रहे राम मोहन बताते है कि रानी का राजदंड अब भी कुमाऊं रेजीमेंट के पास है। अंग्रेजों ने रानी से युद्ध के दौरान यह हासिल कर लिया था जो बाद में कुमाऊं रेजीमेंट के पास पहुंच गया था। राम मोहन के पास उस राजदंड की तस्वीर भी है। राज मोहन के अनुसार रानी का ध्वज लंदन में है।

बुंदेलखंड के इतिहास विद हरगोविंद कुशवाह रानी को लेकर हो रही राजनीति से व्यथित है। उनका कहना है कि राजनैतिक दल हों अथवा प्रशासनिक अमला सभी के लिए रानी की विरासत दुकान बनकर रह गई है। जैसे ही बलिदान दिवस करीब आता है रानी पर बहस छिड़ जाती है। इतना ही नहीं चुनाव के दौरान तो रानी की विरासत को मुद्दा बना दिया जाता है। वक्त गुजरते ही सब भूल जाते है। वे सवाल करते है कि वाकई में कभी तलवार, राजदंड और ध्वज झांसी आ पाएगा? अथवा राजनीति का वही खेल चलता रहेगा जो अब तक होता आया है।

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