बुंदेलखंड की सुबह - Bundelkhand ki Subah

"बुंदेलखंड की सुबह"

ये
सूखे शजर की
शाखों पे उगते सूरज

ये
बादलों के किनारे
जो सूरज की रौशनी से
चाँदी हुए हैं
इनकी ज़मीन से ऊंचाई
और, बुंदेलखंड की प्यास की गहराई
समान ही तो है

लोकतंत्र की स्याह दीवार पे
अन्नदाता के लहू के सुर्ख़ छींटे

ये हमीरपुर, महोबा में
बबूल के पेड़ों पे झूलती लाशें,
पलायन को मजबूर कदम
ये सब सरकारों के
चहमुखी विकास का
परिणाम ही तो है

उम्र के इस
सत्रहवें पतझड़ में
बुंदेलखंड का दर्द महसूस
करने की कोशिश
नाकाम ही तो है

जन्मभूमि से विरह
का दर्द,
प्रेयसी से विरह
के दर्द से कहीं
अधिक होता है

बावजूद इसके
पलायन इसलिए
क्योंकि
लोकतंत्र में नाउम्मीदी
का सूखा
बुंदेलखंड के सूखे से कहीं
अधिक है

ये बर्बश चमकता सूरज
और, तपिश सा जीवन

बस की खिड़की से
झांकते हुए ये पल जो ठहरा
इस पल में ना जाने
कितने प्रतिमानों के प्रतिबिम्ब
टूट गए

गोया,
किसी ने फेंका पत्थर
स्थिर जलाशय में

By:
मनीष कुमार यादव