(Story) जनसेवा का चोखा धंधा है एनo जीo ओo

जनसेवा का चोखा धंधा है एनo जीo ओo

  • समाज सेवा की आड़ में मेवा खाते है स्वैच्छिक संगठन
  • दहेज मे मिलता है एन0जी0ओ0
  • परिवार वाद की प्रथा है समाज सेवा
  • एन0जी0ओ0 रजिस्ट्रेशन के लिये 10 से ज्यादा है कानून
  • स्वार्थ की गिरफ्त में है परमार्थ के पैरोकार।

आमुख
समाज सेवा यूं ही नहीं पिछले 2 दशक में एक उदारी करण प्रक्रिया के बाद व्यापार का रूप इख्तियार कर चुका है बल्कि इन परत दर परत खुलने वाले राज के पीछे दफन है स्वैच्छिक संगठन के वे काले कारनामे जिनकी नजीर एक दो नही आजादी के बाद से पनपे लाखों संगठनो की जमात है। कहना गलत नहीं की इन स्वैच्छिक संगठनों के लिए 10 से ज्यादा कानून सरकार द्वारा बनाये गये हैं। जिनमंे कि सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860, मुम्बई पब्लिक ट्रस्ट एक्ट, इण्डियन ट्रस्ट एक्ट 1882, पब्लिक ट्रस्ट एक्ट 1950, इण्डियन कम्पनीज एक्ट 1956, रिलीजियस एंडोमेंट एक्ट 1963, चैरिटेबल एण्ड रिलीजियस ट्रस्ट एक्ट 1920, मुसलमान वक्फ एक्ट 1923, वक्फ एक्ट 1954, पब्लिक वक्फ एक्सटेंशन आफ लिमिटेशन एक्ट 1959 इनके अतिरिक्त इनकम टैक्स एक्ट के तहत 35 एसी, 35 (1 और 2) एवं 80 जी के जरिए दान की रकम पर 100 फीसदी छूट का प्रावधान है। टैक्स का पैसा देने के बजाय आम तौर पर एन0जी0ओ0 के पैसा देना सफेद पोश अपराधियों, कार्पोरेट सेक्टर की कम्पनियों के लिए अधिक मुनाफे का सौदा होता है। इसके जरिये वे मनमाफिक ब्लैक मनी को व्हाइट में बदल कर परमार्थ का तमगा हासिल करती हैं। कहना गलत नहीं होगा कि तमाम स्वैच्छिक संगठनों के संचालक भले ही अनपढ़ व अशिक्षित हों लेकिन उनके आफिस में बतौर कार्यकर्ता, आफिस मैनेजमंेंट करने वाले एम0बी0ए0, बी0टेक0, सी0ए0, एम0सी0ए0 डिग्री धारक युवा, युवक और युवतियां आफिस को गुलदस्ते की तरह सजाने का काम करती हैं। जिससे आसानी से आवश्यकता पड़ने पर विदेशी फण्डरों, अनुदान कम्पनियांे को रिझाकर उन्हें हर तरह की सुविधा मुहैया करायी जा सके और प्रोजेक्ट एन0जी0ओ0 के पाले में आसानी से आ जाये। ऐसी ही अनगिनत तिकड़म और जालसाजी का गोरख धन्धा बन चुका है और समाज सेवा का कारोबार।

समाज सेवा की आड़ में मेवा खाते हैं स्वैच्छिक संगठन व समाज सेवी बनकर खुद को आम जनमानस के बीच प्रस्तुत करना अब हाईप्रोफाइल से लेकर साधारण व्यक्ति के लिए भी व्यक्तित्व निखार देने का सिम्बल बन गया है। उसी कड़ी में शामिल है जन सेवक बनकर अकूत पैसा कमाने का जरिया जिसे आम बोलचाल की भाषा में एन0जी0ओ0 कहना मुनासिब है। इसके लिये किसी बहुत ज्यादा शैक्षिक डिग्री की आवश्यकता नहीं, एक शार्ट कट सा सीधा रास्ता है। स्वैच्छिक संगठन का निर्माण करो और खुद को समाज सेवा के क्षेत्र में सम्मिलित करते हुए इस चोखे धन्धे में फसकर स्वार्थ की गिरफ्त में परमार्थ के पैरोकार बनने का लुफ्त उठाओ। बताते चलें कि केन्द्र सरकार के अध्ययन के मुताबिक 1970 तक देश में महज 1,44,000 एन0जी0ओ0 सोसाइटी कानून के तहत पंजीकृत हुऐ थे इनकी संख्या में साल दर साल इजाफा होता चला गया और 1970 के दशक में जहां 1.70 लाख नये एन0जी0ओ0 गठित हुऐ तो वहीं 1990 के दशक में 5.52 लाख एन0जी0ओ0 बतौर समाज सेवा के क्षेत्र में उतर चुके थे। इसमें सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी सन् 2000 के बाद आयी और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 400 लोगों में एक एन0जी0ओ0 संचालित है। लगभग इस समय 33 लाख गैर सरकारी संगठन पूरे देश में क्रियाशील हैं। इनकी झोली में हर साल 80 हजार करोड़ रूपये से अधिक दान जाता है और दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले संगठनों के खाते में इसमें दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है।

ग्रामीण विकास की संस्था कपार्ट के मुताबिक जहां करीब उसने एक हजार स्वैच्छिक संगठनों को काली सूची में डाला है वहीं सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने 91 और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन करीब 350 एन0जी0ओ0 काली सूची में दर्ज हो चुके हैं। बकौल निखिल डे (आरटीआई अभियान के राष्ट्रीय संयोजक) ने केन्द्र सरकार से स्वैच्छिक संगठनों को जनसूचनाधिकार के दायरे में लाकर इन्हें सरकारी कार्यों के ठेके नहीं देने की अपील की है। वहीं अरविन्द केजरीवाल (आरटीआई कार्यकर्ता) का कहना है कि सरकार को ऐसी एजेन्सी गठित करनी चाहिए जिससे कि एन0जी0ओ0 की पारदर्शिता व जवाबदेही तय की जा सके। कुछ क्षेत्रों में तो यह भी देखने को मिला है कि परिवारवाद की प्रथा में शामिल समाज सेवा के भाई लोग अपनी पुत्रियों के विवाह के दौरान देने वाले दहेज में बतौर तोहफा घर जमाई को एन0जी0ओ0 देते हैं। वहीं उन्नाव जैसे क्षेत्र में एक महिला संचालक एन0जी0ओ0 कार्यकर्ता चकला घर चलाने के कारण लखनऊ के सेन्ट्रल जेल में सजा काटते हुए पायी जाती है। आश्चर्य होता है कि उनके इस धन्धे में प्रदेश के नामी गिरामी पी0सी0एस0, आई0ए0एस0 जैसे अधिकारी भी गुल खिला रहे होते हैं। एन0जी0ओ0 के गठन मंे बस एक 7 से 11 व्यक्तियों की सूची, संस्था का नाम, साधारण सभा के सदस्यों का नाम लेकर आप रजिस्ट्रार आफिस पहुंच जायें और नोटरी कार्यालयों में पहले से तैयार भारी भरकम उद्देश्यों से सजे हुए संविधान तैयार मिलेंगे। इन पत्रावलियों में फर्जी हस्ताक्षर करिये और रजिस्ट्रार के मुताबिक सौदा तय होने पर स्वैच्छिक संगठन का संचालन कर्ता बन जाइये।

गौरतलब है कि इन एन0जी0ओ0 के पदाधिकारियों के नाम भी हैरत करने वाले हैं यथा राष्ट्रीय अध्यक्ष, अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, निदेशक, सभापति इत्यादि। हिन्दी वर्णमाला के जो भी मार्मिक शब्द है मसलन निरीह, असहाय, वंचित, दलित, ग्रामोदय, सर्वोदय, उत्थान, चेतना, प्रगति, समग्र, सृजन, समर्थन इत्यादि अनेकानेक ऐसे वर्णमालायें इनकी कार्यप्रणाली में शामिल होती हैं। जिनका कि कार्यक्षेत्र से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं होता है। हकीकत है कि बुन्देलखण्ड के साथ-साथ पूरे भारत में इतनी ग्राम पंचायते नहीं हैं जितने कि एन0जी0ओ0 हैं, मगर फिर भी ग्रामोदय बदहाल है, सर्वोदय पिछड़ा है, दलित उत्पीड़ित है और परमार्थ स्वार्थ की पैबन्द में हैं। परियोजनायें हासिल करने के लिए इन संस्थाओं में वह सबकुछ आम बात है जो कि परदे के पीछे ए प्रमाण पत्र धारक फिल्मों के लिए होता है। बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर जनपद में ही तकरीबन दो दर्जन ऐसे समाज सेवी माफिया हैं जिन्होने पिछले दो दशकों में न सिर्फ किसानों की आत्महत्या को भी अनुदान में कैश किया है बल्कि उनके लिये जनमंच मंे अब तो सूखा, आकाल, जल संकट, पलायन, बदहाली, गरीबी, कुपोषण, एड्स जैसे शब्द आम बोलचाल में उपयोग किये जाते हैं।
क्या इन स्वैच्छिक संगठनों को भी जनसूचना अधिकार के दायरे में लाना गलत होगा जबकि बीते 5 वर्षों में इस अधिकार के ही कारण कई सरकारी, गैरसरकारी विभाग भ्रष्टाचार के काले कारनामे उजागर करने में विवस हुयी हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ही इस समय साढ़े छः लाख एन0जी0ओ0 समाज सेवा का काम कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में मिलने वाले पुरूस्कार, प्रशस्ति पत्र, विदेश यात्रायें भी उन लोगों को ही मिलता है जिनके पास पहुंच और मीडिया के समाचारों की बडी़-बड़ी खबरें मौजूद होती हैं और उन्हे ही कभी जल प्रहरी तो कभी भाई के नाम से पुकारा जाता है। आखिर कब तक चलेगा समाज सेवा का यह चोखा धन्धा और कब तक इनकी जालसाजी में पिसेगा देश के अन्तिम पायदान में खड़ा आम आदमी।

Thank's & regards
Ashish Dixit Sagar

Comments

प्रिय लेखक/संपादक

आपका लेख सराहनीय है. यह और भी अच्छा होता यदि आप एन.जी.ओ. माफियाओ के नाम भी प्रकाशित करते. आत्महत्याओं को कैश करने वालों को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए.

आपने एन.जी.ओ. के एक पक्ष को लिखा है. सदियों से हर समाज में कुछ अराजक tatv रहे है. बेहतर होता यदि आप दूसरा पक्ष भी लिखते. एन.जी.ओ. दुवारा किये जा रहे बेहतर कार्यों को नाकारा नहीं जा सकता.

आपके लेख में प्रयोग की गयी दूसरी फोटो हमारे परियोजना क्षेत्र की है. इस विधवा महिला के लिए हमारी संस्था कृति शोध संस्थान दुआरा अपने सिमित संसाधनो के बाद भी यथासम्भव प्रयास किये गए है. जिसे स्थानीय व राष्ट्रिय मिडिया दुआरा समय समय पर सराहा गया है. यह फोटो श्रीमान प्रशांत विश्वनाथन ने ली थी और यह "द हिन्दू" में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई थी, इस तरह फोटो को बिना सन्दर्भ दिए प्रकाशित करना आपत्तिजनक है.
एन.जी.ओ. माफियाओ के नाम भी प्रकाशित करने की कृपा करें धन्यवाद.

मनोज कुमार
सचिव
कृति शोध संस्थान
09452931415, 07398800666

प्रिय पाठक गण ,
आपका सन्देश देखा पढ़कर अति प्रसंता हुई , आशा है की आप आगे भी ऐसे ही मार्गदर्शन
करते रहेगे , आपकी ये बाते बिलकुल सही है की काफी समाज सेवा के पैरोकार बिना स्वार्थ
के ही काम करते आ रहे है और उनके ही प्रयासों से आज लोगो का कुछ यकीन एन जी ओं के प्रति बाकी है
लेकिन हा आप बिना किसी प्रमाण या इंटर नेट से ली गई फोटो पर किसी भी प्रकार का आरोप
नहीं लगा सकते है क्योकि जब लाखो समाज सेवियों की website ही ऐसे ही दूसरी जगहों के संदर्भो
और कापी की गई दस्तावेजो से तैयार होते है तो भला कैसे कोई लेखक पर आरोप लगा सकता है ,
अब तो बड़ी - बड़ी किताबे भी अन्य के मैटर से ही और शोध पत्र भी ऐसे ही तैयार होते है तो फिर
आपको भी अपनी फोटो को इंटरनेट में डालने से मना करना था और उसका भी पेटेंट करा लेने
का प्रयास करना चाहिए !
आपका सादर आभार - आशीष सागर ( प्रवास )

@manoj: your objected image is removed now.

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webmaster

hi,
its really nice to see electronic media(internet) bringing such type of eyes opening news to common masses.keep it up!
but at the same time i would like to mention that there are so many NGOs which are genuinely involved in constructive work. e.g. MKSS by Aruna Roy, DISHA and many others. their role should have been recognised in bringing social change and contributin toward good governance.
with regards,
kumar ratan.

Thanks a lot for presenting real picture of this building industry.
I'm astonished to know the growth rate of this rapidly growing sector.In 1970, only 1.70 lack, in 1990, 5lack, and after 2000 more than 33 lack. it seems unbeliable for common man like me.
I request you all team members to keep on highlighting the real picture before donater who are misleaded by these organizations.

Thanks & Regards

Mukesh Singh
Chitrakoot